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________________ २९ वा वर्ष कर्मका कर्तृत्व अज्ञानसे प्रतिपादित किया है, इससे भी वह निवृत्त होने योग्य है, ऐसा साथमे समझना योग्य है । जो जो भ्रम होता है वह वह वस्तुको विपरीत स्थितिकी मान्यतारूप होता है, और इससे वह दूर होने योग्य है, जैसे मृगजलमेसे जलवुद्धि । कहनेका हेतु यह है कि यदि अज्ञानसे भी आत्माको कर्तृत्व न हो तव तो कुछ उपदेश आदिका श्रवण, विचार, ज्ञान आदि समझनेका कोई हेतु नही रहता । अब यहाँ जीवका परमार्थसे जो कर्तृत्व है उसे कहते है । (७७) चेतन जो निज भानमा, कर्ता आप स्वभाव। । ___ वर्ते नहि. निज भानमा, · कर्ता कर्म-प्रभाव ॥७॥ ___' आत्मा यदि अपने शुद्ध चैतन्य आदि स्वभावमे रहे तो वह अपने उसी स्वभावका कर्ता है, अर्थात् उसी स्वरूपमे परिणमित है, और जब वह शुद्ध चैतन्य आदि स्वभावके भानमे न रहता हो तब कर्मभावका कर्ता है ॥७८॥ _ अपने स्वरूपके भानमे आत्मा अपने स्वभावका अर्थात् चैतन्य आदि स्वभावका ही कर्ता है, अन्य किसी भी कर्म आदिका कर्ता नही है, और जब आत्मा अपने स्वरूपके भानमे नही रहता तब कर्मके प्रभावका कर्ता कहा है। . परमार्थसे तो जीव निष्क्रिय है, ऐसा वेदात आदिका निरूपण है; और जिन-प्रवचनमे भी सिद्ध अर्थात् शुद्ध आत्माको निष्क्रियता है, ऐसा निरूपण किया है। फिर भी हमने आत्माको, शुद्ध अवस्थामे कर्ता होनेसे सक्रिय कहा, ऐसा सदेह यहाँ होने योग्य है, उस सदेहको इस प्रकार शात करना योग्य हैशुद्धात्मा परयोगका, परभावका और विभावका वहाँ कर्ता नही है, इसलिये निष्क्रिय कहना योग्य है, परन्तु चेतन्य आदि स्वभावका भी आत्मा कर्ता नही है, ऐसा यदि कहे तव तो फिर उसका कुछ भी, स्वरूप नही रहता। शुद्धात्माको योगक्रिया न होनेसे वह निष्क्रिय है, परन्तु स्वाभाविक' चैतन्य आदि स्वभावरूप क्रिया होनेसे वह सक्रिय हे । चैतन्यात्मता आत्माको स्वाभाविक होनेसे उसमे आत्माका परिणमन होना एकात्मरूपसे ही है, और इसलिये परमार्थनयसे सक्रिय ऐसा विशेषण वहाँ भी आत्माको नही दिया जा सकता। निजस्वभावमे परिणमनरूप सक्रियतासे निजस्वभावका कर्तृत्व शुद्धात्माको है, इसलिये सर्वथा शुद्ध स्वधर्म होनेसे एकात्मरूपसे परिणमित होता है, इससे निष्क्रिय कहते हुए भी दोष नही है । जिस विचारसे सक्रियता, निष्क्रियता निरूपित की है, उस विचारके परमार्थको ग्रहण करके सक्रियता, निष्क्रियता कहते हुए कोई दोप नही है । (७८) शका-शिष्य उवाच [ जोव कर्मका भोक्ता नही है ऐसा शिष्य कहता है .-] जीव कर्म कर्ता कहो, पण भोक्ता नहि सोय । शं समजे जड कर्म के, फळ परिणामी होय ? ॥७९॥ जीवको कर्मका कर्ता कहे तो भी उस कर्मका भोक्ता जीव नही ठहरता; क्योकि जडकर्म क्या समझे कि वह फल देनेमे परिणामी हो ? अर्थात् फलदाता हो सके ? ॥७९॥ ___ फळदाता ईश्वर गण्ये, भोक्तापणुं सघाय। एम को ईश्वरतणुं, ईश्वरपणं ज जाय ॥८॥ फलदाता ईश्वरको माने तो जीवका भोक्तृत्व सिद्ध किया जा सकता है, अर्थात् जीवको ईश्वर कर्म भोगवाये, इससे जीव कर्मका भोक्ता सिद्ध होता है परन्तु दूसरेको फल देने आदिको प्रवृत्तिवाला ईश्वर मानें तो उसकी ईश्वरता ही नहीं रहती, ऐसा भी फिर विरोध आता हे ||८०॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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