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________________ ५५४ श्रीमद् राजचन्द्र विशेष समझने योग्य है । तथापि यहाँ ईश्वर या विष्णु आदि कर्ताका किसी तरह स्वीकार कर लेते है, और उसपर विचार करते है : यदि ईश्वर आदि कर्मोको लगा देनेवाले हो तब तो जीव नामका कोई भी पदार्थ बीचमे रहा नही, क्योकि प्रेरणा आदि धर्मके कारण उसका अस्तित्व समझमे आता था, वे प्रेरणा आदि तो ईश्वरकृत ठहरे, अथवा ईश्वरके गुण ठहरे, तो फिर वाकी जीवका स्वरूप क्या रहा कि उसे जीव अर्थात् आत्मा कहे ? इसलिये कर्म ईश्वरप्रेरित नहीं, अपितु आत्माके अपने ही किये हुए होने योग्य है। तथा चौथा विकल्प यह है कि प्रकृति आदिके बलात् लगनेसे कम होते हो? यह विकल्प भी यथार्थ नही है । क्योकि प्रकृति आदि जड है, उन्हे आत्मा ग्रहण न करे तो वे किस तरह लगने योग्य हों ? अथवा द्रव्यकर्मका दूसरा नाम प्रकृति है, अर्थात् कर्मका कर्तृत्व कर्मको ही कहनेके समान हुआ, इसे तो पहले निषिद्ध कर दिखाया है। प्रकृति नही, तो अत करण आदि कर्म ग्रहण करते है, इससे आत्मामे कर्तृत्व आता है, ऐसा कहे, तो यह भी एकातसे सिद्ध नहीं होता। अतःकरण आदि भी चेतनकी प्रेरणाके बिना अत करण आदि रूपसे पहले ठहरे ही कहाँसे? चेतन कर्म-संलग्नताका मनन करनेके लिये जो आलबन लेता है, उसे अतःकरण कहते हैं। यदि चेतन उसका मनन न करे तो कुछ उस सलग्नतामे मनन करनेका धर्म नहीं है, वह तो मात्र जड है। चेतन चेतनकी प्रेरणासे उसका आलवन लेकर कुछ ग्रहण करता है; जिससे उसमे कर्तृत्वका आरोप होता है। परंतु मख्यत वह चेतन कर्मका कर्ता है। यहाँ यदि आप वेदात आदि दृष्टिसे विचार करेगे तो हमारे ये वाक्य आपको भ्रातिगत पुरुषके कहे हुए लगेंगे । परंतु अब जो प्रकार कहा है, उसे समझनेसे आपको उन वाक्योकी यथार्थता मालूम होगी और भ्रातिगतता भासित नहीं होगी। यदि किसी भी प्रकारसे आत्माका कर्मकर्तृत्व न हो तो किसी भी प्रकारसे उसका भोक्तृत्व भी सिद्ध नही होता, और जब ऐसा ही हो तो फिर उसको किसी भी प्रकारके दुखोका सम्भव ही नही होता । जब आत्माको किसी भी प्रकारके दु खोका सम्भव ही न होता हो तो फिर वेदात आदि शास्त्र सर्व दु खोके क्षयके जिस मार्गका उपदेश करते है वे किसलिये उपदेश करते है ? 'जब तक आत्मज्ञान नहीं होता तब तक दुखकी आत्यतिक निवृत्ति नही होती' ऐसा वेदात आदि कहते है, वह यदि दुख ही न हो तो उसकी निवृत्तिका उपाय किसलिये कहना चाहिये ? और कर्तृत्व न हो, तो दुखका भोक्तृत्व कहाँसे हो ? ऐसा विचार करनेसे कर्मका कर्तृत्व सिद्ध होता है।' ____ अब यहाँ एक प्रश्न होने योग्य है. और आपने भी वह प्रश्न किया है कि 'यदि आत्माको कर्मका कर्तृत्व मानें तब तो आत्माका वह धर्म सिद्ध होता है, और जो जिसका धर्म हो उसका कभी भी उच्छेद होना योग्य नहीं है, अर्थात् उससे सर्वथा भिन्न हो सकने योग्य नही है, जैसे अग्निकी उष्णता अथवा प्रकाश वैसे।' इस तरह यदि कर्मका कर्तृत्व आत्माका धर्म सिद्ध हो तो उसका नाश नही हो सकता। उत्तर- सर्व प्रमाणाशका स्वीकार किये विना ऐसा सिद्ध होता है, परतु जो विचारवान हो वह किसी एक प्रमाणाशका स्वीकार कर दूसरे प्रमाणाशका नाश नही करता। 'उस जीवको कर्मका क़र्तृत्व. न हो', अथवा 'हो तो वह प्रतीत होने योग्य नही है।' इत्यादि किये गये प्रश्नोके उत्तरमे जीवका कर्मकर्तृत्वबताया है । कर्मका कर्तृत्व हो तो वह दूर ही नही होता, ऐसा कुछ सिद्धात समझना योग्य नहीं है, क्योकि जिस किसी भी वस्तुका ग्रहण किया हो वह छोड़ी जा सकतो है अर्थात् उसका त्याग हो सकता है, क्योकि ग्रहण की हुई वस्तुसे ग्रहण करनेवाली -वस्तुका, सर्वथा एकत्व-कैसे हो सकता है ? इसलिये जीवसे ग्रहण किये हुए ऐसे जो द्रव्य-कर्म, उनका जीव त्याग करे तो हो सकने योग्य है, क्योकि वे उसे सहकारी स्वभावसे हैं, सहज स्वभावसे नही। और उस कर्मको मैंने आपको अनादि-भ्रम कहा है, अर्थात् उस
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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