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________________ श्रीमद राजचन्द्र प्रत्यक्ष सद्गुरुका क्वचित् योग मिले, तो दुराग्रह आदिको छेदक उसकी वाणी सुनकर उससे उलटा ही चलता है, अर्थात् उस हितकारी वाणीको ग्रहण नही करता, और 'स्वय सच्चा दृढ मुमुक्षु है, ' ऐसे मानको मुख्यत प्राप्त करनेके लिये असद्गुरु के पास जाकर स्वयं उसके प्रति अपनी विशेष दृढता बताता है ॥२६॥ ५४४ देवादि गति भंगमां, जे समजे श्रुतज्ञान । माने निज मत वेषनो, आग्रह मुक्तिनिदान ॥२७॥ देव, नरक आदि गतिके 'भंग' आदिके स्वरूप किसी विशेष परमार्थहेतुसे कहे है, उस हेतुको नही जाना, और उस भगजालको जो श्रुतज्ञान समझता है, तथा अपने मतका, वेषका आग्रह रखनेमे ही मुक्तिका हेतु मानता है ||२७|| लघु स्वरूप न वृत्तिनुं, ग्रह्यु ं व्रत अभिमान । ग्रहे नही परमार्थने, लेवा लौकिक मान ॥२८॥ वृत्तिका स्वरूप क्या है ? उसे भी वह नही जानता, और 'मै व्रतधारी हूँ', ऐसा अभिमान धारण किया है | क्वचित् परमार्थके उपदेशका योग बने, तो भी लोगोमे जो अपने मान, पूजा, सत्कार आदि है, वे चले जायेगे, अथवा वे मान आदि फिर प्राप्त नही होगे, ऐसा समझकर वह परमार्थको ग्रहण नही करता ||२८|| शब्दनी मांय । रहित थाय ॥ २९ ॥ अथवा समयसार' या 'योगवासिष्ठ' जैसे ग्रन्थ पढकर वह मात्र निश्चयनयको ग्रहण करता है । किस तरह ग्रहण करता है ? मात्र कहनेमे, अतरगमे तथारूप गुणकी कुछ भी स्पर्शना नही, और सद्गुरु, सत्शास्त्र तथा वैराग्य, विवेक आदि सद्व्यवहारका लोप करता है, तथा अपनेको ज्ञानी मानकर साधनरहित होकर आचरण करता है ||२९|| अथवा निश्चय नय ग्रहे, मात्र लोपे सद्व्यवहारने, साधन ज्ञानदशा पामे नहीं, साधनदशा न पामे तेनो संग जे, ते बूडे भव वह ज्ञानदशाको नही पाता, और वैराग्य आदि साधनदशा भी संग दूसरे जिस जीवको होता है वह भी भवसागरमे डूबता है ||३०|| कांई । मांही ॥३०॥ उसे नही है, जिससे वैसे जीवका ए पण जीव मतार्थमां, निजमानादि काज; पामे नहि परमार्थने, अन्-अधिकारीमां ज ॥३१॥ यह जीव भी मतार्थमे ही प्रवृत्त है, क्योकि उपर्युक्त जीवको जिस तरह कुलधर्म आदिके कारण मतार्थता है, उसी तरह इसे अपनेको ज्ञानी मनवानेके मानको इच्छासे अपने शुष्कमतका आग्रह है, इसलिये वह भी परमार्थंको नही पाता, और अनधिकारी अर्थात् जिसमे ज्ञानका परिणमन होना योग्य नही है, ऐसे जीवोमे वह भी गिना जाता है || ३१ ॥ नहि कषाय उपशातता, नहि अंतर वैराग्य । सरळपणु न मध्यस्थता, ए मतार्थी दुर्भाग्य ॥३२॥ जिसके क्रोध, मान, माया और लोभरूप कषाय पतले नही पड़े है, तथा जिसे अतर वैराग्य उत्पन्न नही हुआ है, जिसके आत्मामे गुण ग्रहण करनेरूप सरलता नही रही है, तथा सत्यासत्यकी तुलना करने की जिसमे अपक्षपातदृष्टि नही है, वह मतार्थी जीव दुर्भाग्य है अर्थात् जन्म, जरा, मरणका छेदन करनेवाले मोक्षमार्गको प्राप्त करने योग्य उसका भाग्य नही है, ऐसा समझें ||३२||
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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