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________________ २९ वाँ वर्ष जे सद्गुरु उपवेशयी, पाम्यो केवळज्ञान | गुरु रह्या छद्मस्य पण, विनय करे भगवान ॥ १९ ॥ जिस सद्गुरुके उपदेशसे कोई केवलज्ञानको प्राप्त हुआ, वह सद्गुरु अभी छद्मस्य रहा हो तो भी जिसने केवलज्ञानको प्राप्त किया है, ऐसा वह केवली भगवान अपने छद्मस्थ सद्गुरुका वैयावृत्य करता है ॥ १९ ॥ एवो मार्ग विनय तणो, भाख्यो श्री वीतराग । ५४३ मूळ हेतु ए मागंनो, समजे कोई सुभाग्य ॥२०॥ श्री जिनेन्द्र ने ऐसे विनयमार्गका उपदेश दिया है। इस मार्गका मूल हेतु अर्थात् उससे आत्माका क्या उपकार होता है, उसे कोई सुभाग्य अर्थात् सुलभबोधी अथवा आराधक जीव हो, वह समझता है ॥२०॥ असद्गुरु ए विनयनो, लाभ लहे जो महामोहनीय कर्मयी, बुडे भवजळ काई । मांही ॥२१॥ यह जो विनयमार्ग कहा है, उसका लाभ अर्थात् उसे शिष्य आदिसे करानेकी इच्छा करके यदि कोई भी असद्गुरु अपने सद्गुरुताकी स्थापना करता है, तो वह महामोहनीय कर्मका उपार्जन करके भवसमुद्रमे डूबता है ॥२१॥ होय मुमुक्षु जीव ते, समजे एह विचार । होय मतार्थी जीव ते, अवळो ले निर्धार ॥ २२ ॥ जो मोक्षार्थी जीव होता है, वह इस विनयमार्ग आदिके विचारको समझता है, और जो मतार्थी होता है, वह उसका उलटा निर्धार करता है, अर्थात् या तो स्वय शिष्य आदिसे वैसी विनय करवाता है, अथवा असद्गुरुमे सद्गुरुकी भ्राति रखकर स्वयं इस विनयमार्गका उपयोग करता है ॥२२॥ होय मतार्थी तेहने, थाय न आतम लक्ष । तेह मतार्थी लक्षणो, अहीं कह्यां निर्पक्ष ॥२३॥ जो मतार्थी जीव होता है, उसे आत्मज्ञानका लक्ष्य नही होता, ऐसे मतार्थी जीवके लक्षण यहाँ निष्पक्षतासे कहे है ||२३|| मतार्थीके लक्षण बाह्यत्याग पण ज्ञान नहि, ते माने गुरु सत्य । अथवा निजकुळघमंना, ते गुरुमां ज ममत्व ॥२४॥ जिसमे मात्र बाह्यसे त्याग दिखायी देता है, परन्तु जिसे आत्मज्ञान नही है, और उपलक्षणसे अतरग त्याग नही है, ऐसे गुरुको जो सच्चा गुरु मानता है, अथवा तो अपने कुलधर्मका चाहे जैसा गुरु हो तो भी उसमे ममत्व रखता है ||२४|| जे जिनदेह प्रमाण ने, समवसरणादि सिद्धि । वर्णन समजे जिननं, रोकी रहे निज बुद्धि ॥२५॥ जो जिनेन्द्रकी देह आदिका वर्णन है, उसे जिनेंद्रका वर्णन समझता है, और मात्र अपने कुलधर्मके देव हैं, इसलिये ममत्वके कल्पित रागसे जो उनको समवसरण आदिका माहात्म्य कहा करता है, और उसमे अपनी बुद्धिको रोक रखता है, अर्थात् परमार्थहेतुस्वरूप ऐसा जिनेंद्रका जो जानने योग्य अतरग स्वरूप है, उसे नही जानता, तथा उसे जाननेका प्रयत्न नही करता, और मात्र समवसरण आदिमे हो जिनेंद्रका स्वरूप बताकर मतार्थमे ग्रस्त रहता है ||२५|| प्रत्यक्ष सद्गुरुयोगमा, वर्ते दृष्टि विमुख । असद्गुरुने दृढ करे, निज मानार्थे मुख्य ॥२६॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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