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________________ 1 顶 २९ वाँ वर्ष ५४ आशका - यहाँ तो 'स्वरूपस्थित' ऐसे पदका प्रयोग किया है, और स्वरूपस्थित पद तो तेरह गुणस्थानमे ही सम्भव है । समाधान - स्वरूपस्थितिकी पराकाष्ठा तो चौदहवें गुणस्थानके अतमे होती है, क्योकि नाम गो आदि चार कर्मका नाश वहाँ होता है, उससे पहले केवलीको चार कर्मोंका सग रहता है, इसलिये सपू स्वरूपस्थिति तो तेरहवें गुणस्थानमे भी कही नही जा सकती । आशका - वहाँ नाम आदि कर्मोंके कारण अव्याबाध स्वरूपस्थितिका निषेध करें तो वह ठीक परतु स्वरूपस्थिति तो केवलज्ञानरूप है, इसलिये स्वरूपस्थिति कहनेमे दोष नही है, और यहाँ तो वैर नही है, इसलिये स्वरूपस्थिति कैसे कही जाये ? समाधान-केवलज्ञानमें स्वरूपस्थितिका तारतम्य विशेष है, और चौथे, पाँचवें, छट्टु गुणस्थान उससे अल्प है, ऐसा कहा जाये, परतु स्वरूपस्थिति नही है ऐसा नही कहा जा सकता । चौथे गुणस्थान मिथ्यात्वमुक्तदशा होनेसे आत्मस्वभावका आविर्भाव है, और स्वरूपस्थिति है । पाँचवें गुणस्थानमे देश चारित्रघातक कषायोका निरोध हो जानेसे चौथेकी अपेक्षा आत्मस्वभावका विशेष आविर्भाव है, अ छट्ठेमे कषायोका विशेष निरोध होनेसे सवं चारित्रका उदय है, इसलिये वहाँ आत्मस्वभावका विशे आविर्भाव है । मात्र छट्टे गुणस्थानमे पूर्वनिबधित कर्मके उदयसे क्वचित् प्रमत्तदशा रहती है, इसलि 'प्रमत्त' सर्वं चारित्र कहा जाता है, परन्तु इससे स्वरूपस्थितिमे विरोध नही है; क्योकि आत्मस्वभाव बाहुल्यसे आविर्भाव है। और आगम भी ऐसा कहते हैं कि चौथे गुणस्थानसे लेकर तेरहवें गुणस्थान त आत्मप्रतीति समान है, ज्ञानका तारतम्य भेद है । यदि चौथे गुणस्थानमे अशत भी स्वरूपस्थिति न हो, तो मिथ्यात्व जानेका फल क्या हुआ ? कु भी नही हुआ । जो मिथ्यात्व चला गया वही आत्मस्वभावका आविर्भाव है, और वही स्वरूपस्थिति है यदि सम्यक्त्वसे तथारूप स्वरूपस्थिति न होती, तो श्रेणिक आदिको एकावतारिता कैसे प्राप्त होती ? व एक भी व्रत, पच्चक्खान नही था और मात्र एक ही भव वाकी रहा ऐसी अल्पससारिता हुई वही स्वरू स्थितिरूप समकितका बल है । पाँचवे और छट्ठे गुणस्थानमे चारित्रका बल विशेष है, और मुख्यत उ देशक गुणस्थान तो छठा और तेरहवां है । वाकीके गुणस्थान उपदेशककी प्रवृत्ति कर सकने योग्य नही इसलिये तेरहवें और छट्ठे गुणस्थानमे वह पद होता है । (१०) प्रत्यक्ष सद्गुरु सम नहीं, परोक्ष जिन उपकार । एवो लक्ष थया विना, ऊगे न आत्मविचार ॥११॥ जब तक जीवको पूर्वकालीन जिनेश्वरोको वातपर ही लक्ष्य रहा करे, और वह उनके उपकार गाया करे, और जिससे प्रत्यक्ष आत्मभ्रातिका समाधान होता है ऐसे सद्गुरुका समागम प्राप्त हुआ है उसमे परोक्ष जिनेश्वरोके वचनोकी अपेक्षा महान उपकार समाया हुआ है, ऐसा जो न जाने उसे आत विचार उत्पन्न नही होता ॥११॥ सद्गुरुना उपवेश वण, समजाय न जिनरूप । समज्या वर्ण उपकार शो ? समज्ये जिनस्वरूप ॥१२॥ सद्गुरुके उपदेशके बिना जिनेश्वरका स्वरूप समझमे नही आता, और स्वरूपको समझे बिना उ कार क्या हो ? यदि सद्गुरुके उपदेश से जिनेश्वरका स्वरूप समझ ले तो समझनेवालेका आत्मा परिणाम जिनेश्वरकी दशाको प्राप्त होता है ॥ १२ ॥ १ देखें आफ ५२७ /
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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