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________________ ५४० भीमद राजचन्द्र भगवानने हमे इस तरह कहा है ।) गुस्के अधीन होकर चलनेवाले ऐसे अनत पुरुष मार्ग पाकर मोक्षको प्राप्त हुए। 'उत्तराध्ययन', 'सूयगडाग' आदिमे जगह जगह यही कहा है । (९) 'आत्मज्ञान समदर्शिता, विचरे उदयप्रयोग। अपूर्व वाणी परमश्रुत, सद्गुरु लक्षण योग्य ॥१०॥ आत्मज्ञानमे जिसकी स्थिति है, अर्थात् जो परभावकी इच्छासे रहित हुआ है, तथा शत्रु, मित्र, हर्ष, शोक, नमस्कार, तिरस्कार आदि भावोके प्रति जिसे समता रहती है, मात्र पूर्वकृत कर्मोके उदयके कारण जिसकी विचरना आदि क्रियाएँ है, अज्ञानीकी अपेक्षा जिसकी वाणी प्रत्यक्ष भिन्न है, और जो षड्दर्शनके तात्पर्यको जानता है, ये सद्गुरुके उत्तम लक्षण है ॥१०॥ स्वरूपस्थित इच्छारहित, विचरे पूर्वप्रयोग । अपूर्व वाणी, परमश्रुत,, सद्गुरु लक्षण योग्य ॥ आत्मस्वरूपमे जिसकी स्थिति है, विषय एव मान, पूजा आदिकी इच्छासे जो रहित है, और मात्र पूर्वकृत कर्मोंके उदयसे जो विचरता है, जिसकी वाणी अपूर्व है, अर्थात् निज अनुभव सहित जिसका उपदेश होनेसे अज्ञानीकी वाणीकी अपेक्षा प्रत्यक्ष भिन्न है, और परमश्रुत अर्थात् षड्दर्शनका जिसे यथास्थित ज्ञान होता है, ये सद्गुरुके योग्य लक्षण हैं। यहाँ 'स्वरूपस्थित' ऐसा प्रथम पद कहा, इससे ज्ञानदशा कही है, इच्छारहित होना कहा, इससे चारित्रदशा कही है। जो इच्छारहित हो वह किस तरह विचर सकता है ? ऐसी आशका, 'विचरे पूर्वप्रयोग' अर्थात् पूर्वोपार्जित प्रारब्धसे विचरता है, विचरने आदिकी कोई कामना जिसे नही है, ऐसा कहकर निवृत्त की है । 'अपूर्व वाणी' ऐसा कहनेसे वचनातिशयता कही है, क्योकि उसके बिना मुमुक्षुका उपकार नही होता.।, 'परमश्रुत' कहनेसे षड्दर्शनके अविरुद्ध दशासे ज्ञाता है ऐसा कहा है, इससे श्रुतज्ञानकी विशेषता दिखायी है। आशका-वर्तमानकालमे स्वरूपस्थित पुरुष नही होता, इसलिये जो स्वरूपस्थित विशेषणवाला सद्गुरु कहा है, वह वर्तमानमे होना सभव नही। ___समाधान–वर्तमानकालमे कदाचित् ऐसा कहा हो तो यह कहा जा सकता है कि 'केवलभूमिका' के विषयमे ऐसी स्थिति असभव है, परतु आत्मज्ञान ही नही होता ऐसा नही कहा जा सकता, और जो आत्मज्ञान है वही स्वरूपस्थिति है। आशका-आत्मज्ञान हो तो वर्तमानकालमे मुक्ति होनी चाहिये, और जिनागममे तो इसका निषेध किया है। समाधान-इस वचनको कदाचित् एकातसे ऐसा ही मान लें, तो भी इससे एकावतारिताका निषेध नही होता, और एकावतारिता आत्मज्ञानके बिना प्राप्त नहीं होती। आशका-त्याग, वैराग्य आदिकी उत्कृष्टतासे उसे एकावतारिता कही होगी। समाधान-परमार्थसे उत्कृष्ट त्यागवैराग्यके बिना एकावतारिता होती ही नही, ऐसा सिद्धात है, और वर्तमानमे भी चौथे, पाँचवें और छ? गुणस्थानका कुछ निषेध है नही, और चौथे गुणस्थानसे ही आत्मज्ञानका सम्भव होता है, पाँचवेंमे विशेष स्वरूपस्थिति होती है, छ8मे बहुत अशसे स्वरूपस्थिति होती है, पूर्व प्रेरित प्रमादके उदयसे मात्र कुछ प्रमाद-दशा आ जाती है, परतु वह आत्मज्ञानकी रोधक नही, चारित्रकी रोधक है। १.देखें आक८३७
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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