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________________ २९ वा वर्ष बंध मोक्ष छे कल्पना, भाखे वाणी माही। वर्ते मोहादेशमा, शुष्कज्ञानी ते आंही ॥५॥ बध और मोक्ष मात्र कल्पना है, ऐसा निश्चयवाक्य जो मात्र वाणीसे बोलते हैं, और जिसकी तथारूप दशा नहीं हुई है, और जो मोहके प्रभावमे रहते है, उन्हे यहाँ शुष्कज्ञानी कहा है ।।५।। वैराग्यादि सफळ तो, जो सह आतमज्ञान । तेम ज आतमज्ञाननी, प्राप्तितणां निदान ॥६॥ वैराग्य,'त्याग आदि यदि आत्मज्ञानके साथ हो तो वे सफल है, अर्थात् मोक्षकी प्राप्तिके हेतु हैं; और जहाँ आत्मज्ञान न हो वहाँ भी यदि आत्मज्ञानके लिये वे किये जायें, तो वे आत्मज्ञानकी प्राप्तिके हेतु हैं ॥६॥ वैराग्य, त्याग, दया आदि अतरगवृत्तिवाली क्रियाएँ है, यदि उनके साथ आत्मज्ञान हो तो वे सफल हैं, अर्थात् भवके मूलका नाश करती हैं, अथवा वैराग्य, त्याग, दया आदि आत्मज्ञानकी प्राप्तिके कारण है। अर्थात् जीवमे प्रथम इन गुणोके आनेसे सद्गुरुका उपदेश उसमे परिणमित होता है। उज्ज्वल अंत.करणके बिना सद्गुरुका उपदेश परिणमित नही होता। इसलिये वैराग्य आदि आत्मज्ञानकी प्राप्तिके साधन हैं ऐसा कहा है। यहाँ जो जीव क्रियाजड हैं, उन्हे ऐसा उपदेश किया है कि मात्र कायाका ही रोकना कुछ आत्मज्ञानकी प्राप्तिका हेतु नही है, वैराग्य आदि गुण आत्मज्ञानकी प्राप्तिके हेतु है, इसलिये आप उन क्रियाओका अवगाहन करें, और उन क्रियाओमे भी रुके रहना योग्य नहीं हैं, क्योकि आत्मज्ञानके बिना वे भी भवके मूलका छेदन नही कर सकती। इसलिये आत्मज्ञानको प्राप्तिके लिये उन वैराग्य आदि गुणोका आचरण करे, और कायक्लेशरूप क्रियामे-जिसमे कषाय आदिकी तथारूप कुछ भी क्षीणता नही होती-. उसमे आप मोक्षमार्गका दुराग्रह न रखें, ऐसा क्रियाजडोको कहा है। और जो शुष्कज्ञानी त्याग, वैराग्य आदिसे रहित है, मात्र वाचाज्ञानी हैं, उन्हे ऐसा कहा है कि वैराग्य आदि जो साधन हैं, वे आत्मज्ञानकी प्राप्तिके कारण है, कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति नही होती, आपने वैराग्य आदि भी प्राप्त नही किये, तो आत्मज्ञान कहाँसे प्राप्त किया हो ? इसका कुछ आत्मामे विचार करे। ससारके प्रति बहुत उदासीनता, देहकी म को अल्पता, भोगमे अनासक्ति तथा मान आदिकी कृशता इत्यादि गुणोके विना तो आत्मज्ञान परिणमित नही होता, और आत्मज्ञानकी प्राप्ति होनेपर तो वे गुण अत्यन्त दृढ हो जाते हैं, क्योकि आत्मज्ञानरूप मूल उन्हे प्राप्त हुआ है। इसके बदले आप स्वयंको आत्मज्ञानी मानते हैं, और आत्मामे तो भोग आदिकी कामनाकी अग्नि जला करती है, पूजा, सत्कार आदिको कामना वारंवार स्फुरित होती रहती है, सहज असातासे बहत आकुलता-व्याकुलता हो जाती है । यह क्यो ध्यानमे नही आता कि ये आत्मज्ञानके लक्षण नहीं है ? 'मैं मात्र मान आदिको कामनासे आत्मज्ञानी कहलवाता हूँ', यह जो समझमे नही आता उसे समझें, और वैराग्य आदि साधन प्रथम तो आत्मामे उत्पन्न करें कि जिससे आत्मज्ञानकी सन्मुखता हो । (६) त्याग विराग न चित्तमा, थाय न तेने ज्ञान । अटके त्याग विरागमां, तो भूले निजभान ॥७॥ जिसके चित्तमे त्याग और वैराग्य आदि साधन उत्पन्न न हुए हो उसे ज्ञान नहीं होता, और जो त्याग-वैराग्यमे ही अटककर आत्मज्ञानकी आकाक्षा न रखे वह अपना भान भूल जाता है; अर्थात् अज्ञानपूर्वक त्याग-वैराग्य आदि होनेसे वह पूजा-सत्कार आदिसे पराभवको प्राप्त होता है और आत्मार्थ चूक जाता है ॥७॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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