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________________ ४९८ श्रीमद राजचन्द्र आरभ-परिग्रहका त्याग किस किस प्रतिवधसे जीव नही कर सकता, और वह प्रतिवध किस प्रकारसे दूर किया जा सकता है, इस प्रकारसे मुमुक्षुजीवको अपने चित्तमे विशेष विचार-अकुर उत्पन्न करके कुछ भी तथारूप फल लाना योग्य है। यदि वैसा न किया जाये तो उस जीवको मुमुक्षुता नही है, ऐसा प्राय कहा जा सकता है। __आरभ और परिग्रहका त्याग किस प्रकारसे हुआ हो तो यथार्थ कहा जाये इसे पहले विचारकर वादमे उपर्युक्त विचार-अकुर मुमुक्षुजीवको अपने अतःकरणमे अवश्य उत्पन्न करना योग्य है। तथारूप उदयसे विशेष लिखना अभी नही हो सकता। वंबई, पौष वदी १२, रवि, १९५२ उत्कृष्ट सम्पत्तिके स्थान जो चक्रवर्ती आदि पद है उन सबको अनित्य जानकर विचारवान पुरुष उन्हे छोडकर चल दिये है, अथवा प्रारब्धोदयसे वास हुआ तो भी अमूच्छितरूपसे और उदासीनतासे उसे प्रारब्धोदय समझकर आचरण किया है, और त्यागका लक्ष्य रखा है। ६६७ बबई, पौष वदी १२, रवि, १९५२ ___ महात्मा बुद्ध ( गौतम ) जरा, दारिद्रय, रोग और मृत्यु इन चारोको एक आत्मज्ञानके बिना अन्य सर्व उपायोंसे अजेय समझकर, जिसमे उनकी उत्पत्तिका हेतु हैं, ऐसे ससारको छोड़कर चल दिये थे । श्री ऋषभ आदि अनत ज्ञानीपुरुषोने इसी उपायकी उपासना की है, और सर्व जीवोको इस उपायका उपदेश दिया है। उस आत्मज्ञानको प्राय. दुर्गम देखकर निष्कारण करुणाशील उन सत्पुरुषोने भक्तिमार्ग कहा है, जो सर्व अशरणको निश्चल शरणरूप है, और सुगम है। बबई, माघ सुदी ४, रवि, १९५२ पत्र मिला है। असग आत्मस्वरूप सत्संगके योगसे नितात सरलतासे जानना योग्य है, इसमें सशय नही है। सत्सगके माहात्म्यको सब ज्ञानीपुरुषोने अतिशयरूपसे कहा है, यह यथार्थ है। इसमें विचारवानको किसी तरह विकल्प होना योग्य नही है। अभी तत्काल समागम सम्बंधी विशेषरूपसे लिखना नहीं हो सकता। ६६८ बबई, माघ वदी ११, रवि, १९५२ यहाँसे सविस्तर पत्र मिलनेमे अभी विलंब होता है, इसलिये प्रश्नादि लिखना नही हो पाता, ऐसा आपने लिखा तो वह योग्य है । प्राप्त प्रारब्धोदयके कारण यहाँसे पत्र लिखनेमे विलंब होना सम्भव है। तथापि तीन-तीन चार-चार दिनके अतरसे आप अथवा श्री डंगर कुछ ज्ञानवार्ता नियमितरूपसे लिखते रहियेगा, जिससे प्रायः यहाँसे पत्र लिखनेमे कुछ नियमितता हो सकेगी। त्रिविध त्रिविध नमस्कार । ६७० वंवई, फागुन सुदी १, १९५२ ॐ सद्गुरुप्रसाद ज्ञानीका सर्व व्यवहार परमार्थमूल होता है, तो भी जिस दिन उदय भी आत्माकार रहेगा, वह दिन धन्य होगा।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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