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________________ २९ वॉ वर्ष ૪૨૭ ६६२ बबई, पौष वदी, १९५२, सर्व प्रकारके भयके रहनेके-स्थानरूप इस संसारमे मात्र एक वैराग्य ही अभय है। इस निश्चयमे तीनो कालमे शका होना योग्य नही है। ___ "योग असंख जे जिन कह्या, घटमांही रिद्धि दाखो रे; . नवपद तेम ज जाणजो, आतमराम छे. साखी रे।' -श्री श्रीपाळरास बबई, पौष, १९५२ गृहादि प्रवृत्तिके योगसे उपयोग विशेष चलायमान रहना सभव है, ऐसा जानकर परम पुरुष सर्वसगपरित्यागका उपदेश करते थे । ... बंबई, पौष वदी २, १९५२ सर्व प्रकारके भयके रहनेके स्थानरूप इस ससारमे मात्र एक वैराग्य ही अभय है। जो वैराग्यदशा महान मुनियोको प्राप्त होना दुर्लभ है, वह वैराग्यदशा तो प्राय जिन्हे गहवासमे रहती थी, ऐसे श्री महावीर, ऋषभ आदि पुरुष भी त्यागको ग्रहण करके घरसे चल निकले, यही त्यागकी reता बताई है। - जब तक गहस्थादि व्यवहार रहे तब तक आत्मज्ञान न हो, अथवा जिसे आत्मज्ञान हो, उसे गृहस्थादि व्यवहार न हो, ऐसा नियम नही है । वैसा होनेपर भी परमपुरुषोने ज्ञानीको 'भी त्याग व्यवहारका उपदेश किया है, क्योकि त्याग ऐश्वर्यको स्पष्ट व्यक्त करता है, इससे और लोकको उपकारभूत होनेसे त्याग अकर्तव्यलक्ष्यसे कर्तव्य है, इसमे सन्देह नहीं है। जो स्वस्वरूपमे स्थिति है, उसे 'परमार्थसयम' कहा है। उस सयमके कारणभूत अन्य निमित्तोंके ग्रहणको 'व्यवहारसयम' कहा है। किसी ज्ञानीपुरुषने उस सयमका भी निषेध नही किया है। परमार्थकी उपेक्षा (लक्षके बिना) से जो व्यवहारसयममे ही परमार्थसयमकी मान्यता रखे, उसके व्यवहारसयमका उसका अभिनिवेश दूर करनेके लिये, निषेध किया है। परंतु व्यवहारसयममे कुछ भी परमार्थको निमित्तता नही है, ऐसा ज्ञानीपुरुषोने कहा नही है। परमार्थके कारणभूत 'व्यवहाररायम' को भी परमार्थसंयम कहा है। श्री डुगरको इच्छा विशेषतासे लिखना हो सके तो लिखियेगा। प्रारब्ध है, ऐसा मानकर ज्ञानी उपाधि करते है, ऐसा मालूम नही होता, परतु परिणतिसे छट जानेपर भी त्याग करते हुए बाह्य कारण रोकते हैं, इसलिये ज्ञानी उपाधिसहित दिखायी देते है, तथापि वे उसको निवृत्तिके लक्ष्यका नित्य सेवन करते है। प्रणाम। बबई, पौष वदी ९, गुरु, १९५२ देहाभिमानर हित सत्पुरुषोको अत्यंत भक्तिसे त्रिकाल नमस्कार ज्ञानीपुरुषोने वारवार आरम्भ-परिगहके त्यागको उत्कृष्टता कही है, और पुन पुन उस त्यागका उपदेश किया है, और प्राय. स्वय भी ऐसा आचरण किया है, इसलिये मुमुक्षुपुरुषको अवश्य उसे कम करना चाहिये, इसमे सन्देह नहीं है। १ भावार्थके लिये देखें आफ ३७७ ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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