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________________ [ ४८ ] ९२९ निग्रंथ महात्माओके दर्शन, समागम और ९५४ 'इच्छे छे जे जोगीजन, अनत सुखस्वरूप' वचन . , ६६२ (काव्य), अतिम सदेश-जिन और जीव ९३० कुदकुदाचार्यकृत समयसार, आर्य त्रिभोवनकी दोनो एक, जिनप्रवचन सद्गुरुके अवलबनसे आत्मस्थिति ६६२ सुगम, आत्मप्राप्तिकी प्रथम-मध्यम भूमिका, ९३१ वजनके बिनाका मनुष्य निकम्मा आत्मप्राप्तिके मार्गके श्रेष्ठ अधिकारी, आत्म९३२ शरीरप्रकृति स्वस्थास्वस्थ ६६३ स्वभावमें मनका लय-ससारविलय, अनत ९३३ अपूर्व शाति और अचल समाधि, पाँचो वायु ६६३ सुखधाम ९३४ मनुष्यता, आर्यता आदि उत्तरोत्तर दुर्लभ ६६४ ९५५ रोग नही हैं, निर्बलता है । ६७२ ९३५ मनुष्यदेहका एक समय भी अमूल्य, प्रमाद- ९५६ उपदेश नोध जय परमपदजय, शरीरप्रकृति ६६४ १ षड्दर्शनसमुच्चयका भाषातर ६७३ ९३६ मनुष्यदेह चिंतामणि, ग्यारहवाँ आश्चर्य ६६४ २ वेशभूषा, धर्मद्रोह, प्रयोगके बहाने पशुवध ६७३ ९३७ वाकीका समय आत्मविचारमें, निर्जराका ३ ज्ञानियोंको सदाचार प्रिय, अकाम और ' सुन्दर मार्ग सकाम निर्जरासे प्राप्त मनुष्यदेह ६७३ ९३८ 'समयचरण सेवा शुद्ध देजो, 'शरीरस्थिति ६६५ ४ आठ दृष्टि आत्मदशामापक यत्र, शास्त्र ९३९ वेदना सहन करना परम धर्म, शुद्ध चारित्रका अर्थात् शास्तापुरुषके वचन, ऋतुको , मार्ग, परम निर्जरा : -) - ६६५ सन्निपात, व्यसन, पटा हुआ भूलनेसे - ९४० असातामुख्यता उदयमान, आत्माके शुद्ध छुटकारा । ६७४ , स्वरूपकी याद ५ परम सत् पीडित होता हो तो, सपूर्ण ९४१ आज्ञा करना भयकर, नियममें स्वेच्छाचार निरावरण ज्ञान होने तक श्रुतज्ञानकी प्रवर्तनसे मरण श्रेयस्कर । आवश्यकता । । ६७५ ९४२ परम निवृत्तिका सेवन, दुषमकालमें प्रमाद ६ मनके पर्याय जाने जा सकते हैं, आसन- ; . ___ अकर्तव्य, आत्मबलाधीनतासे पत्रलेखन ६६६ जय, परमाणुकी दृश्यता ६७५ ९४३ ज्ञानीकी प्रधान आज्ञा. परम भगलकारी ७ मोक्षमालाकी रचना, भावनाबोध, किस - सुदृढता ६६६ विचारसे नव तत्त्वके तत्त्वज्ञानका बोध ? ९४४ प्रमत्तभाव कल्पित क्या? ६७५ ९४५ श्री पर्युषण-आराधना ८ योगको तरतमतासे वासनाकी तरतमता ६७६ ९४६ श्री 'मोक्षमाला'के 'प्रज्ञावबोध' भागकी ९ श्री हेमचद्राचार्य और आनदघनजीका सकलना ६६८ निष्कारण लोकानुग्रह, अतरालमें वीतराग३४ वॉ वर्ष मार्गकी विमुखता, विषमताके कारण ६७६ ९४७ वर्तमान दुपमकालमें ध्यान रखने योग्य ६६९ । १० जैनधर्मसे भारतवर्षकी अधोगति या ९४८ मदनरेखाका अधिकार आदिकी चर्चा भयोग्य ६६९ उन्नति ? ६७८ ९४९ जिन्दगीका लक्ष्यबिंदु-लोकसज्ञा और ' ११ श्री आत्मारामजी, श्रावकता या साधुता , आत्मशाति कुलसप्रदायमे नही, आत्मामें है, ज्योतिष ९५० अधिकारोको दीक्षा - -६७० कल्पित समझकर छोड दिया, मानपत्र ९५१ प्रवाममें सहराका रेगिस्तान, निकाचित आदिमें विवेकहीनता, परिग्रहधारी । उदयमान थकान, स्वरूप अन्यथा नही होता ६७० यतियोके सन्मानसे मिथ्यात्वका पोषण, ९५२ गरीरसवधी अप्राकृत क्रम - ___ बढे जैसे कहें वैसे करना, जैसे करें वैसे ९५३ वेदनीयको वेदन करनेमें हर्पशोक क्या ? ६७० नही करना, कबीरका दृष्टात ६७८ .६६७ ६६७ Ciao ६७०
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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