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________________ २५ वॉ वर्ष ४४९ ५४९ माकुभाई इत्यादिको जो उपाधि कार्य करनेमे अधीरतासे, आर्त्त जैसे परिणामसे, दूसरेको आजीविकाका भग होता है, यह जानते हुए भी, राजकाजमे अल्प कारणमे विशेष सम्बन्ध करना योग्य नही, ऐसा होनेका कारण होनेपर भी, जिसमे तुच्छ द्रव्यादिका भी विशेष लाभ नही है, फिर भी उसके लिये आप बारबार लिखते है, यह क्या योग्य है ? आप जैसे पुरुष वैसे विकल्पको शिथिल न कर सकेंगे, तो इस दुषमकालमे कौन समझकर शान्त रहेगा ? कितने ही प्रकार से निवृत्तिके लिये और सत्समागम के लिये वह इच्छा रखते हैं, यह बात ध्यानमे है, तथापि वह इच्छा यदि अकेलो ही हो तो इस प्रकारको अधीरता आदि होने योग्य नही है । माकुभाई इत्यादिको भी अभी उपाधिके सम्बन्धमे लिखना योग्य नही है । जैसे हो वैसे देखते रहना, यही योग्य है । इस विषय मे जितना उपालम्भ लिखना चाहिये उतना लिखा नही है, तथापि विशेषतासे इस उपालम्भको विचारियेगा । परम स्नेही श्री सोभाग, ५५० } कल आपका लिखा एक पत्र प्राप्त हुआ है । यहाँसे परसो एक पत्र लिखा है वह आपको प्राप्त हुआ होगा । तथा उस पत्रका पुन: पुन विचार किया होगा, अथवा विशेष विचार कर सके तो अच्छा । वह पत्र हमने संक्षेपमे लिखा था, इससे शायद आपके चित्तके समाधानका पर्याप्त कारण न हो, इसलिये उसमे अन्तमे लिखा था कि यह पत्र अधूरा है, जिससे बाकी लिखना अगले दिन होगा । " अगले दिन अर्थात् पिछले दिन यह पत्र लिखनेकी कुछ इच्छा होनेपर भी अगले दिन अर्थात् आज लिखना ठीक है, ऐसा लगनेसे पिछले दिन पत्र नही लिखा था । I परसो लिखे हुए पत्र जो गम्भीर आशय लिखे है, वे विचारवान जीवके आत्माको परम हितेषी हो, ऐसे आशय है । हमने आपको यह उपदेश कई बार सहज सहज किया है, फिर भी आजीविकाके कष्टक्लेशसे आपने उस उपदेशका कई बार विसर्जन किया है, अथवा हो जाता है । हमारे प्रति माँ-बाप जितना आपका भक्तिभाव है, इसलिये लिखने मे बाधा नही है, ऐसा मानकर तथा दुख सहन करनेकी असमर्थताके कारण हमसे वैसे व्यवहार की याचना आप द्वारा दो प्रकारसे हुई है- एक तो किसी सिद्धियोगसे दु.ख मिटाया जा सके ऐसे आशयकी, और दूसरी याचना किसी व्यापार रोजगार आदिकी । आपकी दोनो याचनाओमे से एक भी हमारे पास की जाय, यह आपके आत्माके हितके कारणको रोकनेवाला, और अनुक्रमसे मलिन वासनाका हेतु हो, क्योकि जिस भूमिकामे जो उचित नही है, उसे वह जीव करे तो उस भूमिकाका उसके द्वारा सहजमे त्याग हो जाये, इसमे कुछ सन्देह नही है । आपकी हमारे प्रति निष्काम भक्ति होनी चाहिये, और आपको चाहे जितना दुःख हो, फिर भी उसे घोरतासे भोगना चाहिये। वैसा न हो सके तो भी हमे तो उसकी सूचनाका एक अक्षर भी नही लिखना चाहिये, यह आपके लिये सर्वांग योग्य है, और आपको वैसी ही स्थितिमे देखनेकी जितनी मेरी इच्छा है, और उस स्थितिमे जितना आपका हित है, वह पत्रसे या वचनसे हमसे बताया नही जा सकता । परन्तु पूर्वके किसी वैसे ही उदयके कारण आपको वह बात विस्मृत हो गयी है, जिससे हमे फिर सूचित करने की इच्छा रहा करती है । उन दो प्रकारकी याचनाओमे प्रथम विदित की हुई याचना तो किसी भी निकटभवीको करनी योग्य ही नही है, और अल्पमात्र हो तो भी उसका मूलसे छेदन करना उचित है, क्योकि लोकोत्तर १ आक ५४८ बबई, मार्गशीर्ष वदी ११, रवि, १९५१
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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