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________________ ४४८ श्रीमद राजवन्द्र रागको, घनघाती चार कर्मोंका नाश हो जानेसे वे भोगने नही पड़ते है, और उन कर्मोके पुन उत्पन्न होनेके कारणोकी स्थिति उस सर्वज्ञ वीतरागमे नही है; वैसे ज्ञानीका निश्चय होनेसे जीवको अज्ञानभावसे उदासीनता होती है, और उस उदासीनताके कारण भविष्यकालमे उस प्रकारका कर्म उपार्जन करनेका मुख्य कारण उस जीवको नही होता। क्वचित् पूर्वानुसार किसी जीवको विपर्यय-उदय हो, तो भी वह उदय अनुक्रमसे उपशात एव क्षीण होकर, जीव ज्ञानीके मार्गको पुनः प्राप्त करता है, और अर्धपुद्गलपरावर्तनमे अवश्य ससारमुक्त हो जाता है । परतु समकिती जीवको, या सर्वज्ञ वीतरागको या किसी अन्य योगी या ज्ञानीको ज्ञानकी प्राप्तिके कारण उपार्जित प्रारब्ध भोगना न पड़े या दु ख न हो, ऐसा सिद्धात नही हो सकता। तो फिर हमको-आपको सत्संगका मात्र अल्प लाभ हो तो सर्व ससारी दु ख निवृत्त होने चाहिये, ऐसा मानें तो फिर केवलज्ञानादि निरर्थक होते है, क्योकि यदि उपार्जित प्रारब्ध बिना भोगे नष्ट हो जाये तो फिर सब मार्ग मिथ्या ही ठहरे। ज्ञानीके सत्सगसे अज्ञानीके प्रसंगकी रुचि मंद हो जाये, सत्यासत्यका विवेक हो, अनतानुबधी क्रोधादिका नाश हो, अनुक्रमसे सब रागद्वेषका क्षय हो जाय, यह सम्भव है, और ज्ञानोके निश्चय द्वारा यह अल्पकालमे अथवा सुगमतासे हो, यह सिद्धात है । तथापि जो दुःख इस प्रकारसे उपार्जित किया है कि अवश्य भोगे बिना नष्ट न हो, वह तो भोगना ही पड़ेगा, इसमे कुछ सशय नही होता । इस विषयमे अधिक समाधानकी इच्छा हो तो समागममे हो सकता है। मेरी आतरवृत्ति ऐसी है कि परमार्थ-प्रसगसे किसी ममक्षजीवको मेरा प्रसग हो तो वह अवश्य मुझसे परमार्थके हेतुकी ही इच्छा करे तभी उसका श्रेय हो, परंतु द्रव्यादि कारणकी कुछ भी इच्छा रखे अथवा वैसे व्यवसायके लिये वह मुझे सूचित करे, तो फिर अनुक्रमसे वह जीव मलिन वासनाको प्राप्त होकर मुमुक्षुताका नाश करे, ऐसा मुझे निश्चय रहता है। और इसी कारणसे जब कई बार आपको तरफसे कोई व्यावहारिक प्रसग लिखनेमे आया है तब आपको उपालभ देकर सूचित भी किया था कि आप अवश्य यही प्रयत्न करें कि मुझे वैसे व्यवसायके लिये न लिखें, और मेरी स्मृतिके अनुसार आपने उस बातको स्वीकार भी किया था; परतु तदनुसार थोड़े समय तक ही हुआ। अब फिर व्यवसायक सम्बन्धमे लिखना होता है। इसलिये आजके मेरे पत्रको विचार कर आप उस बातका अवश्य विसर्जन कर दे, और नित्य वैसी वृत्ति रखें तो अवश्य हितकारी होगी । और आपने मेरी आतरवृत्तिको उल्लासका कारण अवश्य दिया है, ऐसा मुझे प्रतीत होगा। ___ दूसरा कोई भी सत्सगके प्रसगमे ऐसा करता है तो मेरा चित्त बहुत विचारमे पड़ जाता है या घबरा जाता है, क्योकि परमार्थका नाश करनेवाली यह भावना इस जीवके उदयमें आयी। आपने जब जब व्यवसायके विषयमे लिखा होगा, तब तब मुझे प्राय ऐसा ही हुआ होगा। तथापि आपकी वृत्तिमे विशेष अंतर होनेके कारण चित्तमे कुछ घबराहट कम हुई होगी। परंतु अभी तत्कालके प्रसगसे आपने भी लगभग उस घबराहट जैसी घबराहटका कारण प्रस्तुत किया है ऐसा चित्तमे रहता है। जैसे रवजीभाई कुटुम्बके लिये मुझे व्यवसाय करना पड़ता है वैसे आपके लिये मुझे करना हो तो भी मेरे चित्तमे अन्यभाव न आये। परंतु आप दुःख सहन न कर सके तथा मुझे व्यवसाय बतायें, यह वात किसी तरह श्रेयरूप नही लगती; क्योकि रवजीभाईको वैसी परमार्थ इच्छा नही है और आपको है, जिससे आपको इस बातमे अवश्य स्थिर होना चाहिये । इस बातका विशेष निश्चय रखिये। 'यह पत्र कुछ अधूरा है, जो प्राय. कल पूरा होगा। १. आक ५५०
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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