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________________ ६२५ [-४५] ७८१ परम पुरुषदशावर्णन, सर्वथा असग उपयोग- ८०६ सत्समागमसे कैवल्यपर्यंत निविघ्नता ६२३ से आत्मस्थिति करें, वीतरागदशा रखना ८०७ दिगम्वरत्व और श्वेताम्बरत्व, 'मोक्षमार्ग' ही सर्व ज्ञानका फल प्रकाश' में जिनागमका निषेध अयोग्य ६२३ ७८२ ससारका मुख्य वीज, देहत्याग करते हुए - | ८०८ सयम प्रथम दशामें कालकूट विष और परि . णाममे अमृत श्रीसोभागकी दशा, उनके अद्भुत गुणोका ६२३ स्मरण ६१६ | ८०९ निष्काम भक्तिमानका सत्सग या दर्शन यह पुण्यरूप ६२४ ७८३ दु खक्षयका उपाय, प्रत्यक्ष सत्पुरुषसे सर्व ८१० लोकदृष्टि और ज्ञानीकी दृष्टि, प्रमादमे रति ६२४ साधन सिद्ध, आरंभपरिग्रहकी वृत्ति मद करें ६१७ ८११ सबके प्रति क्षमादृष्टि, सत्पुरुषका योग ७८४ सच्चे ज्ञान और चारित्रसे कल्याण ६१८ शीतल छाया समान ६२४ ७८५ ज्ञानीके वचन त्यागवैराग्यका निषेध नही . 1 ८१२ निवृत्तिमान द्रव्य आदिके योगसे उत्तरोत्तर करते . . . ६१८ __ऊँची भूमिका, जीवको भान कब आये ? ६२४ ७८६ आतमरामी निष्कामी, सोभागकी अतर | ८१३ ऊपरकी भूमिकाओमें अनादि वासनाका दशा अनुप्रेक्षा योग्य ६१८ । सक्रमण, अतराय-परिणाममें शुरवीरता ७८७ ज्ञानीका मार्ग स्पष्ट सिद्ध - और सद्विचार ७८८ परम सयमी पुरुषोका भीष्मवत । ८१४ योगदृष्टिसमुच्चय आदि योग-ग्रंथ, अष्टाग ७८९ सत्शास्त्रपरिचय कर्तव्य ____ योग दो प्रकारसे । ७९० दीर्घकालको अति अल्पकालमें लानेके ३१ वा वर्ष " ध्यानमें, एकत्वभावनासे आत्मशुद्धिकी " । ८१५ विहार योग्य क्षेत्र । ६२६ उत्कृष्टता - . ६१९ / ८१६ सर्व दु खक्षयका उपाय, प्रमाद ६२६ ७९१ सद्वर्तन आदिमें प्रमाद अकर्तव्य , ६२०८१७ सम्यग्दर्शनसे दुखकी आत्यतिक निवृत्ति ६२६ ७९२ परमोत्कृष्ट, सयमका स्वरूपविचार भी ../ ८१८ ज्ञान आदि समझनेके लिये अवलबनभूत विकट ६२० क्षयोपशमादि भाव ७९३ व्रत आदि और सम्यग्दर्शनका बल सत्पुरुष- ८१९ मोक्षपट्टन सुलभ ही है, शौर्य ' की वाणी ६२० | ८२० सद्विचारवानके लिये हितकारी प्रश्न ६२७ ७९४ ऐसा वर्तन करें कि गुण उत्पन्न हो ६२० ८२१ आत्महितके लिये बलवान प्रतिबघ, 'आत्म७९५ किसका समागमादि कर्तव्य ? ६२१ । सिद्धि' ग्रथमें अमोहदृष्टि ६२७ ७९६ 'मोहमुद्गर' और 'मणिरत्नमाला' पढे ६२१ / ८२२ समागमके प्रति उदासीनता ६२८ ७९७ श्रीडुगरकी दशा ८२३ अवधताके लिये अधिकार ६२८ ७९८ 'मोक्षमार्गप्रकाश' का श्रवण, श्रोताकी ८२४ सत्श्रुत और स्त्पमागमका सेवन . हितकारी दृष्टि ६२६ .८२५ आत्मस्वभावकी निर्मलताके साधन ६२९ ७९९ श्रुतज्ञानका अवलबन ६२१ ८२६ सत्श्रुत-परिचयमें अतराय ८०० आत्मदशा होनेके प्रबल अवलवन ६२२ । ८२७ उत्तापका मूल हेतु क्या ? ६२९ ८०१ क्षमापना ६२२ ८२८ अहमदावादमें जानेको वृत्ति अयोग्य ६२९ ८०२ असत्तिके निरोधके लिये ६२२ । ८२९ मुमुक्षुता दृढ करें ८०३ क्षमापना ८३० नियमित शास्त्रावलोकन कर्तव्य ६३० ८०४ क्षमापना ८३१ दुषमकालमें भी परम शातिके मार्गकी ८०५ क्षमापना प्राप्ति सभव ६३० ,६२७ ६२८ ६३० ६२२ ६२३ ]
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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