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________________ २७ या वर्ष ग्रन्थ हैं, ऐसा भी मालूम होता है। तथापि जो कुछ प्राचीन हो वही सम्पूर्ण हो या सत्य हो, ऐसा नही कहा जा सकता, और जो बादमे उत्पन्न हुए हो वे अपूर्ण तथा असत्य हो, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। बाकी वेद जैसा अभिप्राय और जैन जैसा अभिप्राय अनादिसे चला आता है। सर्व भाव अनादि हैं, मात्र रूपातर होता है। केवल उत्पत्ति अथवा केवल नाश नही होता। वेद, जैन और अन्य सबके अभिप्राय अनादि हैं, ऐसा माननेमे आपत्ति नही है; वहाँ फिर विवाद किसका रहे? तथापि इन सबमे विशेष वलवान, सत्य अभिप्राय किसका कहने योग्य है, उसका-विचार करना, यह हमे, आपको, सबको योग्य है। ९ प्र-(१) वेद किसने बनाये ? वे अनादि हैं ? (२) यदि अनादि हो तो अनादिका अर्थ क्या ? उ०-(१) बहुत काल पहले वेदोका होना सम्भव है। (२) पुस्तकरूपसे कोई भी शास्त्र अनादि नहीं है, उसमे कहे हुए अर्थके अनुसार तो सव शास्त्र अनादि है, क्योकि उस उस प्रकारका अभिप्राय भिन्न-भिन्न जोव भिन्न भिन्नरूपसे कहते आये हैं, और ऐसी ही स्थिति सम्भव है, क्रोधादि भाव भी अनादि है, और क्षमादि भाव भी अनादि हैं, हिंसादि धर्म भी अनादि है; और अहिंसादि धर्म भी अनादि हैं। मात्र जीवके लिये हितकारी क्या है ? इतना विचार करना कार्यरूप है । अनादि तो दोनो हैं । फिर कभी कम परिमाणमे ओर कभी विशेष परिमाणमे किसोका बल होता है। १० प्र०-गीता किसने बनायी ? ईश्वरकृत तो नही है ? यदि वैसा हो तो उसका कोई प्रमाण है ? उ०-उपर्युक्त उत्तरोसे कुछ, समाधान हो सकने योग्य है कि 'ईश्वर'का अर्थ ज्ञानी. (सम्पूर्णज्ञानी) ऐसा करनेसे वह ईश्वरकृत हो सकती है, परतु नित्य अक्रिय ऐसे आकाशकी तरह व्यापक ईश्वरको स्वीकार करनेपर वैसी पुस्तक आदिकी उत्पत्ति होना सम्भव नहीं है, क्योकि यह तो साधारण कार्य है कि जिसका कर्तृत्व आरभपूर्वक होता है, अनादि नही होता। गीता वेदव्यासजीकी बनायी हुई पुस्तक मानी जाती है और महात्मा श्रीकृष्णने अर्जुनको वैसा बोध किया था, इसलिये मुख्यरूपसे कर्ता श्रीकृष्ण कहे जाते है, जो बात सम्भव है। ग्रन्थ श्रेष्ठ है, ऐसा भावार्थ अनादिसे चला आता है, परतु वे ही श्लोक अनादिसे चले आते हो, ऐसा होना योग्य नहीं है, तथा निष्क्रिय ईश्वरसे भी उसकी उत्पत्ति हो, यह सम्भव नही है। सक्रिय अर्थात् किसी देहधारीसे वह क्रिया होने योग्य है। इसलिये सम्पूर्णतानी वही ईश्वर है, और उसके द्वारा उपदिष्ट शास्त्र ईश्वरीय शास्त्र है, ऐसा माननेमे कोई वाधा नहीं है। ११ प्र०-पशु आदिके यज्ञसे जरा भी पुण्य है क्या? उ.-पशके वधसे, होमसे या जरा भी उसे दुख देनेसे पाप ही है, वह फिर यज्ञमे करे या चाहे तो ईश्वरके धाममे बैठकर करें, परन्तु यज्ञमे जो दानादि क्रिया होती है, वह कुछ पुण्य हेतु है, तथापि हिंसामिश्रित होनेसे वह भी अनुमोदन योग्य नहीं है। १२ प्र०-जो धर्म उत्तम है, ऐसा आप कहे तो उसका प्रमाण मांगा जा सकता है क्या ? उ०-प्रमाण मांगनेमे न आये और उत्तम हे ऐसा प्रमाणके विना प्रतिपादन किया जाये तो फिर अर्थ, अनर्थ, धर्म, अधर्म सब उत्तम हो ठहरें। प्रमाणसे ही उत्तम अनुत्तम मालूम होता है। जो धर्म ससारको परिक्षीण करनेमे सवसे उत्तम हो, और निजस्वभावमे स्थिति करानेमे बलवान हो वही उत्तम और वही बलवान है। १३ प्र-क्या आप ईसाईधर्मके विषयमे कुछ जानते हैं ? यदि जानते हो तो अपने विचार बतलाइयेगा।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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