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________________ ४३४ श्रीमद् राजचन्द्र छोडकर छूट जानेके परिणाममे रहती है, ऐसा भी मालूम होता है, अनुभवमे आता है । 'उसी प्रकार अज्ञानभावके अनेक परिणामरूप वधका प्रसंग आत्माको है, वह ज्यो ज्यो छूटता है त्यो त्यो मोक्षका अनुभव होता है, और जब उसकी अतीव अल्पता हो जाती है तब सहज ही आत्मामे निजभाव प्रकाशित होकर अज्ञानभावरूप बधसे छूट सकनेका प्रसग है, ऐसा स्पष्ट अनुभव होता है । तथा समस्त अज्ञानादिभावसे निवृत्ति होकर सम्पूर्ण आत्मभाव इसी देहमें स्थितिमान होते हुए भी आत्माको प्रगट होता है, और सर्व सम्बन्धसे सर्वथा अपनी भिन्नना अनुभवामे आती है, अर्थात् मोक्षपद इस देहमे भी अनुभवमे आने योग्य है। ५ प्र०-ऐसा पढनेमे आया है कि मनुष्य देह छोड़कर कर्मके अनुसार जानवरोमे जन्म लेता है, पत्यर भी होता है, वृक्ष भी होता है, क्या यह ठीक है ? | उ०-देह छोडनेके बाद उपाजित कर्मके अनुसार जीवकी गति होती है, इससे वह तिर्यंच (जानवर) भी होता है और पृथ्वीकाय अर्थात् पृथ्वीरूप शारीर धारणकर बाकीकी दूसरी चार इन्द्रियोके बिना कर्म भोगनेका जीवको प्रसग भी आता है, तथापि वह सर्वथा पत्थर अथवा पृथ्वी हो जाता है, ऐसा कुछ नही है । पत्थररूप काया धारण करे और उसमे भी अव्यक्तरूपसे जीव जीवरूप ही होता है। दूसरी चार इन्द्रियोकी वहाँ अव्यक्तता (अप्रगटता) होनेसे पृथ्वीकायरूप जी कहने योग्य है। अनुक्रमसे उस कर्मको भोगकर जीव निवृत्त होता है, तब केवल पत्थरका दल परमाणु रूपसे रहता है, परन्तु जीवके उसके सम्बन्धको छोड़कर चले जानेसे उसे आहारादि सज्ञा नही होती, अर्थात् केवल जड'ऐसा पत्थर जीव होता है, ऐसा नहीं है । कमकी विषमतासे चार इद्रियोका प्रसग अव्यत्त होकर केवल एक स्पर्शन्द्रियरूपसे देहका प्रसग जीचको जिस कमसे होता है, उस कर्मको 'भोगते हए वह पृथ्वी आदिमें जन्म लेता है, परंतु वह सर्वथा पृथ्वीरूप अथवा पत्थररूप नही हो जाता। जानवर होते हुए भी सर्वथा' जानवर नहीं हा जाता । जो देह है, वह जोवकी वेशधारिता है, स्वरूपता नही है। - ६-७ प्र०-५वें प्रश्नके उत्तरमे छठे प्रश्नका भी समाधान आ गया है, और सातवे प्रश्नका भी समाधान आ गया है कि केवल पत्थर या केवल पृथ्वी कुछ कर्मका कर्ता नही है। उसमे आकर उत्पन्न हुआ जीव कर्मका कर्ता है, और वह भी दूध और पानीकी तरह है। जैसे दूध पानीका सयोग होनेपर भी दूध दूध है और पानी पानी है, वैसे एकेन्द्रिय आदि कर्मबन्धसे जीवमे पत्थरपन, जड़ता मालूम होती है, तो भी वह जीव अन्तरमे तो जीवल्पसे ही है, और वहाँ भी वह आहार, भय आदि सज्ञापूर्वक है, जो अव्यक्त जैसी है। ८. प्र०-(१) आर्यधर्म क्या है ? (२) सबकी उत्पत्ति वेदमेसे ही है क्या ? उ०-(१) आर्यधर्मकी व्याख्या करनेमे सभी अपने पक्षको आर्यधर्म कहना चाहते हैं। जैन जैनको, बौद्ध बौद्धको, वेदाती वेदातको आर्यधर्म कहते हैं, ऐसा साधारण है। तथापि ज्ञानीपुरुष तो जिससे आत्माको निजस्वरूपकी प्राप्ति हो, ऐसा जो आर्य (उत्तम) मार्ग, उसे आर्यधर्म कहते हैं, और ऐसा ही होने योग्य है। (२) सबकी उत्पत्ति वेदमेसे होना सम्भव नही है । वेदमे जितना ज्ञान कहा है उससे हज़ारगुना आशयवाला ज्ञान श्री तीर्थंकरादि महात्माओने कहा है, ऐसा मेरे अनुभवमे आता है, और इससे मैं ऐसा मानता हूँ कि अल्प वस्तुमेसे सम्पूर्ण 'वस्तु नही हो सकती, ऐसा होनेसे वेदमेसे सबकी उत्पत्ति कहना योग्य नही है। वैष्णवादि सम्प्रदायोकी उत्पत्ति उसके आश्रयसे माननेमें कोई आपत्ति नही है। जैन, बौद्धके अन्तिम महावीरादि' महात्मा होनेसे पहले वेद थे; ऐसा मालूम होता है, और वे बहुत प्राचीन
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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