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________________ २७ वो वर्ष ४१९ इस जीवने पूर्वकालमे जो जो साधन किये है, वे वे साधन ज्ञानीपुरुपकी आज्ञासे हुए मालूम नही होते, यह बात सदेहरहित प्रतीत होती है। यदि ऐसा हुआ होता तो जीवको ससारपरिभ्रमण न होता। ज्ञानीपुरुषकी जो आज्ञा हे वह भवभ्रमणको रोकनेके लिये प्रतिवध जैसी है, क्योकि जिन्हे आत्मार्थके सिवाय दूसरा कोई प्रयोजन नही हे और आत्मार्थ साधकर भी जिनकी देह प्रारब्धवशात् है, ऐसे ज्ञानीपुरुषकी आज्ञा सन्मुख जीवको केवल आत्मार्थमे ही प्रेरित करती है, और इस जीवने तो पूर्वकालमे कोई आत्मार्थ जाना नही है, प्रत्युत आत्मार्थ विस्मरणरूपसे चला आया है। वह अपनी कल्पनासे सावन करे तो उससे आत्मार्थ नहीं होता, प्रत्युत आत्मार्थका साधन करता हूँ ऐसा दुष्ट अभिमान उत्पन्न होता है कि जो जीवके लिये ससारका मुख्य हेतु है। जो बात स्वप्नमे भी नही आती, उसे जीव यदि व्यर्थ कल्पनासे साक्षात्कार जैसी मान ले तो उससे कल्याण नहीं हो सकता । उसी प्रकार यह जीव पूर्वकालसे अधा चला आता हुआ भी यदि अपनी कल्पनासे आत्मार्थं मान ले तो उसमे सफलता नही होती, यह बात बिलकुल समझमे आने जैसी है । इसलिये यह तो प्रतीत होता है कि जीवके पूर्वकालीन सभी अशुभ साधन, कल्पित साधन दूर होनेके लिये अपूर्व ज्ञानके सिवाय दूसरा कोई उपाय नही है, और वह अपूर्व विचारके बिना उत्पन्न होना सभव नहीं है, और यह अपूर्व विचार, अपूर्व पुरुषके आराधनके बिना दूसरे किस प्रकारसे जीवको प्राप्त हो, यह विचार करते हुए यही सिद्धात फलित होता है कि ज्ञानीपुरुपकी आज्ञाका आराधन, यह सिद्धपदका सर्वश्रेष्ठ उपाय है, और यह बात जब जीवको मान्य होती है, तभीसे दूसरे दोषोका उपशमन और निवर्तन शुरू होता है। श्री जिनेन्द्रने इस जीवके अज्ञानकी जो जो व्याख्या की है, उसमे समय समयपर उसे अनतकर्मका व्यवसायी कहा है, और अनादिकालसे अनतकर्मका वध करता आया है, ऐसा कहा है। यह बात तो यथार्थ है । परन्तु यहाँ आपको एक प्रश्न हुआ है कि 'तो फिर वैसे अनतकर्मोंको निवृत्त करनेका साधन चाहे जैसा बलवान हो, तो भी अनतकाल बीतनेपर भी वह पार न पाये।' यदि सर्वथा ऐसा हो तो आपको जैसा लगा वैसा संभव है । तथापि जिनेन्द्रने प्रवाहसे जीवको अनतकर्मका कर्ता कहा है, वह अनतकालसे कर्मका कर्ता चला आता है, ऐसा कहा है, परन्तु समय समय अनतकाल तक भोगने पड़े ऐसे कर्म वह आगामिक कालके लिये उपार्जन करता है, ऐसा नहीं कहा है। किसी जीव-आश्रयी इस बातको दूर रखकर विचार करते हुए ऐसा कहा है कि सब कर्मोंका मूल जो अज्ञान, मोह परिणाम है, वह अभी जीवमे जैसेका तैसा चला आता है, कि जिस परिणामसे उसे अनतकाल तक भ्रमण हुआ है, और यदि यह परिणाम बना रहा तो अभी भी ज्योका त्यो अनतकाल तक परिभ्रमण होता रहेगा। अग्निकी एक चिनगारीमे इतना ऐश्वर्य गुण है कि वह समस्त लोकको जला सके, परन्तु उसे जैसा जैसा योग मिलता है वैसा वैसा उसका गुण फलवान होता है। उसी प्रकार अज्ञानपरिणाममे अनादिकालसे जीवका भटकना हआ है, वैसे अभी अनतकाल तक भी चौदह राजलोकमे प्रत्येक प्रदेशमे उस परिणामसे अनत जन्ममरण होना अभी भी सभव है । तथापि जैसे चिनगारीकी अग्नि योगवश है, वैसे अज्ञानके कर्मपरिणामकी भी अमुक प्रकृति है। उत्कृष्टसे उत्कृष्ट यदि एक जीवको मोहनीयकर्मका व हो तो सत्तर कोडाकोडी सागरोपमका होता है. ऐसा जिनेन्द्रने कहा है । उसका हेतु स्पष्ट है कि यदि अनतकालका वध होता हो तो फिर जीवका मोक्ष नही हो सकता। यह वध अभी निवृत्त न हुआ हो परन्तु लगभग निवृत्त होने आया हो, तब कदाचित दुसरी वैसी स्थितिका सभव हो, परन्तु ऐसे मोहनीयकर्म कि जिनकी कालस्थिति ऊपर कही है वैसे एक समयमे अनेक कर्म वाथे, यह सम्भव नही है । अनुक्रमसे अभी उस कर्ममे निवृत्त होनेसे पहले दूसरा उसी स्थितिका बांधे, तथा दूसरा निवृत्त होनेसे पहले तीसरा वॉवे, परन्तु दुसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवा, छठा इस तरह सबके सब कर्म एक मोहनीयकर्मके सम्बन्धमे उसी स्थितिके वाँधा करे, ऐसा नहीं हो सकता,
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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