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________________ ४१८ श्रीमद् राजचन्द्र करनेका प्रकार मिलता है कि जो कर्तव्य है। सिद्धस्वरूप जैसा आत्मस्वरूप है ऐसा विचारकर और इस आत्मामे वर्तमानमे उसकी अप्रगटता है, उसका अभाव करनेके लिये उस सिद्धस्वरूपका विचार, ध्यान तथा स्तुति करना योग्य है । यह प्रकार समझकर सिद्धकी स्तुति करनेमे कोई वाधा प्रतीत नही होती। 'आत्मस्वरूपमे जगत नही है', यह बात वेदान्तमे कही है अथवा ऐसा योग्य है। परन्तु 'बाह्य जगत नही है', ऐसा अर्थ मात्र जीवको उपशम होनेके लिये मानने योग्य समझा जाये। इस प्रकार इन तीन प्रश्नोका सक्षेपमे समाधान लिखा है, उसे विशेषरूपसे विचारियेगा। कुछ विशेष समाधान जाननेकी इच्छा हो, वह लिखियेगा । जिस तरह वैराग्य-उपशमकी वर्धमानता हो उस तरह करना अभी तो कर्तव्य है। ५१० बम्बई, आषाढ सुदी ६, रवि, १९५० श्री स्थम्भतीर्थस्थित शुभेच्छासम्पन्न श्री त्रिभुवनदासके प्रति यथायोग्यपूर्वक विनती कि वधवृत्तियोका उपशम करनेके लिये और निवर्तन करनेके लिये जीवको अभ्यास, सतत अभ्यास ___ कर्त्तव्य है, क्योकि विचारके बिना और प्रयासके बिना उन वृत्तियोका उपशमन अथवा निवर्तन कैसे हो ? कारणके बिना किसी कार्यका होना सम्भव नही है, तो फिर यदि इस जीवने उन वृत्तियोके उपशमन अथवा निवर्तनका कोई उपाय न किया हो तो उनका अभाव नही होता, यह स्पष्ट सम्भव है। कई बार पूर्वकालमे वृत्तियोके उपशमन तथा निवर्तनका जीवने अभिमान किया है, परन्तु वैसा कोई साधन नही किया, और अभी तक जीव उस प्रकारका कोई उपाय नही करता, अर्थात् अभी उसे उस अभ्यासमे कोई रस दिखायी नही देता, तथा कटुता लगनेपर भी उस कटुताकी अवगणना कर यह जीव उपशमन एव निवर्तनमे प्रवेश नहीं करता। यह बात इस दुष्टपरिणामी जीवके लिये वारवार विचारणीय है, किसी प्रकारसे विसर्जन करने योग्य नही है। , जिस प्रकारसे पुत्रादि सम्पत्तिमे इस जीवको मोह होता है, वह प्रकार सर्वथा नीरस और निन्दनीय है। जीव यदि जरा भी विचार करे तो यह बात स्पष्ट समझमे आने जैसी है कि इस जीवने किसीमे पुत्रत्वकी भावना करके अपना अहित करनेमे कोई कसर नही रखी, और किसीको पिता मानकर भी वैसा ही किया है, और कोई जीव अभी तक तो पिता पुत्र हो सका हो, ऐसा देखनेमे नही आया। सब कहते आये है कि इसका यह पुत्र अथवा इसका यह पिता है, परन्तु विचार करते हुए स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह वात किसी भी कालमे सम्भव नहीं है। अनुत्पन्न ऐसे इस जीवको पुत्ररूपसे मानना अथवा ऐसा मनवानेकी इच्छा रहना, यह सब जीवकी मूढता है, और यह मूढता किसी भी प्रकारसे सत्सगकी इच्छावाले जीवको करना योग्य नहीं है। आपने जो मोहादि प्रकारके विपयमे लिखा है, वह दोनोके लिये भ्रमणका हेतु है, अत्यन्त विडम्बनाका हेतु है। ज्ञानीपुरुष भी यदि इस तरह आचरण करे तो ज्ञानको ठोकर मारने जैसा है, और सब प्रकारसे अज्ञाननिद्राका वह हेतु है । इस प्रकारके विचारसे दोनोको सीधा भाव कर्त्तव्य है। यह बात अल्पकालमे ध्यानमे लेने योग्य है। आप और आपके सत्सगी यथासम्भव निवृत्तिका अवकाश ले, यही जीवको हितकारी है। __ ५११ मोहमयो, आपाढ सुदी ६, रवि, १९५० श्री अजारस्थित, परमस्नेही श्री सुभाग्य, . आपका सविस्तर एक पत्र तथा एक चिट्ठी प्राप्त हुए है। उनमे लिखे हुए प्रश्न मुमुक्षुजीवके लिये विचारणीय हैं। ३
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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