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________________ ४८९ । ४८०६ [ ४१ ६१६ अपने दोष कम किये विना सत्पुरुषके मार्गका. . | " प्राप्ति, आत्मज्ञानको पात्रताके लिये यम___ फल पाना कठिन है ४८ नियमादि साधन, तत्त्वका तत्त्व' ४८९ ६१७ केवलज्ञान विशेष विचारणीय, स्वरूप ६३२ युवावस्थामें इन्द्रिय-विकारके कारण । । ४८९ • प्राप्तिका हेतु विचारणीय, सव। दर्शनोका ६३३ आत्मसाधनके लिये कर्तव्यका विचार तुलनात्मक विचार, अल्पकालमे सर्व प्रकार- ६३४ सवत्सरी क्षमापना ।। . ४९४ का सर्वांग समाधान ६३५ निवृत्तिक्षेत्रमें स्थितिकी वृत्ति । ४९० ६१८ उदयप्रतिवध आत्महितार्थ दूर करनेका क्या ।, ६३६ निमित्ताधीन जीव निमित्तवासी जीवोका '' - उपाय ? , - ४८१ '' सग छोडकर सत्सग करें। ' ४९० ६१९' सर्व प्रतिबघमुक्तिके विना सर्व दुखमुक्ति ,' ६३७ सर्वदु ख मिटानेका उपाय ।। ४९० । असभव, अल्पकालकी अल्प असगताका ६३८ धर्म, अधर्मको निष्क्रियता और सक्रियर्ता, .. विचार . . . ४८२ | ' ' जीव, परमाणुकी सक्रियता ४९१ ६२० महावीरस्वामीका मौनप्रवर्तन उपदेशमार्ग- ६३९ आत्मार्थके लिये चाहे जहाँ श्रवणादिका . प्रवर्तकको शिक्षाबोधक, उपयोगकी जागृति-, प्रसग करना योग्य पूर्वक प्रारब्धका वेदन, सहज प्रवृत्ति और , । ६४० आत्माकी असगता' मोक्ष है, तदर्थ सत्सग उदीरण प्रवृत्ति . . ,४८२ | कर्तव्य । ६२१ अधिक समागम नही कर सकने योग्य दशा, । ६४१ देखतभूलीके प्रवाहमें न बहनेका कौन-सा । ____अविरतिरूप उदय विराधनाका हेतु ४८३ | आधार? ६२२ 'अनन्तानुबन्धी'का विशेषार्थ, उपयोगकी ६४२ परकथा-परवृत्तिमें बहते विश्वमें स्थिरता ___शुद्धतासे स्वप्नदशाकी परिक्षीणता ४८४ । कहाँसे ? आत्मप्राप्ति एकदम सुलभ . ४९१ ६२३ मुमुक्षुकी आसातनाका डर । ४८४ ६४३ आत्मदशा कैसे आये ? । ४९२ ६२४ अमुक प्रतिबघ करनेकी अयोग्यता '' ४८५ ६४४ वैराग्य, उपशमादि भावोकी परिणति कठिन ६२५ पर्याय पदार्थका विशेष स्वरूप, मन पर्याय होनेपर भी सिद्धि ४९२ ज्ञानको ज्ञानोपयोगमें गिना है, दर्शनोपयोग- ६४५' 'समज्या ते शमाई रह्मा' गया' ४९२ में नही . । । ४८५ ६४६ विचारवानकी विचारश्रेणि, अपनी त्रिकाल ६२६ निमित्तवासी यह जीव है . ४८५ । विद्यमानता, वस्तुता बदलती नही, सर्व ६२७ आत्मार्थके लिये विचारमार्ग और भक्तिमार्ग ज्ञानका फल आत्मस्थिरता - ..' ४९२ ' आराघनीय ४८५ ६४७ निर्वाणमार्ग अगम-अगोचर है ४९३ ६२८ गुणसमुदाय और गुणीका स्वरूप'' ४८५ .६४८ ज्ञानीका अनंत ऐश्वर्य-वीर्य' . ४९३ ६२९ गुण-गुणीके स्वरूपका विचार, इस कालमे ६४९ जीवनका हीन उपयोग । ४९३ केवलज्ञानका विचार, जातिस्मरणज्ञान, जीव ६५० अतर्मुख पुरुषोको भी सतत जागृतिको शिक्षा ४९३ प्रति समय मरता है, केवलज्ञानदर्शनमे २९ वॉ वर्ष भूत-भविष्य पदार्थका दर्शन ४८६ / ६५१ 'समजीने शमाई रह्या गया'का अर्थ, ६३० क्षयोपशमजन्य इन्द्रियलब्धि, जीवके ज्ञान सत्सग, सद्विचारसे शात होने तक पद दर्शन (प्रदेशको निरावरणता) क्षायिक भाव सच्चे, नि संदेह है और क्षयोपशम भावके अधीन, वेदनाक ६५२ वेदान्तमें निरूपित मुमुक्षु तथा जिननिरूपित वेदनमें उपयोग रुकता है। ४८७ सम्यग्दृष्टि के लक्षण ४९५ ६३१ एक आत्माको जानते हुए समस्त लोकालोक- | ६५३ द्रव्यसयमरूप साधुत्व किसलिये ? ४९५ का ज्ञान, और सब जाननेका फल आत्म- । ६५४ अतर्लक्ष्यवत् वृत्ति ४९५
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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