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________________ : mmm ४७ ४७ ५७९ मौन, आत्मा सबसे अत्यत प्रत्यक्ष : ४६३ । ५९७ वर्धमानस्वामी, आदिका आत्मकल्याणका ५८० पूछने-लिपने में प्रतिवध नही निर्धार अद्वितीय, वेदान्तकथित आत्म५८१ चेतनका चेतन पर्याय, जडका जड पर्याय ४६३ । स्वरूप पूर्वापर विरोधी, जिनकथित विशेष ५८२ आत्मवीर्यके प्रवर्तन और सकोच करनेमे विशेष अविरोधी, सम्पूर्ण आत्मस्वरूप विचार, आत्मदशाकी स्थिरताके लिये प्रगट करने योग्य पुरुष - - ४७ असगताका व्यान, उस तरफ अभी न आने- ५९८ अल्पकालमें उपाधिरहित होनेके लिये, का आशय ४६४ 1 विचारवानको मानदशा अयोग्य, निवृत्ति ५८३ एक आत्मपरिणतिके सिवाय दूसरे विषयोमें क्षेत्रमें समागम अधिक योग्य चित्त अव्यवस्थित, लोकव्यवहार अरुचिकर, ५९९ शरण और निश्चय कर्तव्य अचलित आत्मरूपसे रहनेकी इच्छा, स्मृति, ६०० ज्ञानीपुरुषका उपकार, कभी विचारवानको वाणी और लेखनशक्तिकी मदता ४६४ प्रवृत्तिक्षेत्रमे समागम विशेष लाभकारक, ५८४ 'जेम निर्मलता रे', सगसे व्यतिरिक्तता । भीडमे ज्ञानीपुरुषकी निर्मलदशा, नववाडपरम श्रेयरूप विशुद्ध ब्रह्मचर्य दशासे अवर्णनीय सयमसुख ४७ः ५८५ असगता और सुखस्वरूपता, स्थिरताके हेतु ४६५ / ६०१ अष्टमहासिद्धि आदि है, आत्माका सामर्थ्य ४७३ ५८६ पूर्णज्ञानी श्री ऋषभादिको भी प्रारब्धोदय ६०२ समयकी सूक्ष्मता ओर रागद्वेषादि मनपरिभोगना पडा, मोतीसम्बन्धी व्यापारसे णाम और उनका उद्भव, स्वाध्याय काल ४७४ छूटनेकी लालसा, परमार्थ एव व्यवहार ६०३ ज्ञानीपुरुषको स्वभावस्थितिका सुख, ज्ञानीसम्बन्धी लेखनसे कटाला, वीतरागकी का दशाफेर तो भी प्रयत्न स्वधर्ममें, शिक्षा-द्रव्यभाव सयोगसे छूटना ४६५ ।। सम्पूर्ण ज्ञानदशामे परिग्रहका अप्रसग ४७४ ५८७ केवलज्ञानसे पदार्थ किस प्रकार दिखायी ६०४ वचनोकी पुस्तक , . ४७४ देते है ? दीपक आदिकी भांति . ४६७ ६०५ आत्मपरिणामकी विभावता ही मुख्य मरण -४७५५ ५८८ वीतरागकी शिक्षा द्रव्य-भाव सयोगसे छूटना, ६०६ ज्ञानका फल विरति, पूर्वकर्मकी सिद्धि ४७५ अनादिको भूल, सर्व जीवोका परमात्मत्व ४६७ ६०७ जगमकी युक्तियाँ । ! . ५८९ वेदात ग्रन्थ वैराग्य और उपशमके लिये ४६८ | ६०८ सात भर्तारवाली ४७५ ५९० चारित्रदशाको अनुप्रेक्षासे स्वस्थता, स्व- ६०९ आत्मामें निरन्तर परिणमन करने योग्य स्थताके बिना ज्ञान निष्फल वचन-सहजस्वरूपसे, स्थिति,, सत्सग ५९१ ज्ञानदशाके विना विपयकी निर्वाणका मुख्य हेतु, असगता, सत्सग भव, ज्ञानीपुरुषको भोगप्रवृत्ति । ४६८ निष्फल क्यो? सत्सगकी पहचान, आत्म५९२ क्षणभगुर देहमें प्रीति क्या करें ? आत्मा कल्याणार्थ ही प्रवृत्ति से शरीर भिन्न देखनेवाले धन्य, महात्मा |६१० मिथ्याभाव प्रवृत्ति और सत्य ज्ञान, देवपुरुषोकी प्रामाणिकता ४६८ लोकसे आनेवालोको लोभ विशेष ४७७ ५९३ सर्व ज्ञानका सार, ग्रन्यिभेदके लिये वीर्य ६११ आमका विपरिणाम काल ४७७ गति और उनके साधन ४६९ | ६१२ अहोराय विचारदशा, कबीरपथीका सग ४७८ ५९४ दुखरूप काया और विचारवान ६१३ अनतानुवघी और उसके स्थानक, मुमुक्षु ५९५ वेदातादि और जिनागममें आत्मस्वरूपकी पुरुषका भूमिकाधर्म विचारणाम भेद ६१४ त्यागका क्रम ४७९ ५९६ सर्वकी अपेक्षा वीतराग-वचन सपूर्ण ६१५ केवलज्ञान आदि सवधी वोलोके प्रति प्रतीतिका स्थान ४७० विचारपरिणति कर्तव्य ४७५ ४७६ .४७८
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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