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________________ ४०२ श्रीमद् राजचन्द्र श्री ज्ञानीपुरुषो द्वारा सम्यकदर्शनके मुख्य निवासभूत कहे हुए इन छ पदोको यहाँ संक्षेपमे वताया हैं । समीपमुक्तिगामी जीवको सहज विचारमे ये सप्रमाण होने योग्य हैं, परम निश्चयरूप प्रतीत होने योग्य हैं, उसका सर्व विभागसे विस्तार होकर उसके आत्मामे विवेक होने योग्य है। ये छ पद अत्यंत सन्देहरहित है, ऐसा परमपुरुषने निरूपण किया है। इन छ पदोका विवेक जीवको स्वस्वरूप समझनेके लिये कहा है । अनादि स्वप्नदशाके कारण उत्पन्न हुए जीवके अहभाव, ममत्व भावके निवृत्त होनेके लिये ज्ञानीपुरुषोने इन छः पदोकी देशना प्रकाशित की है। उस स्वप्नदशासे रहित मात्र अपना स्वरूप है, ऐसा यदि जीव परिणाम करे, तो वह सहजमात्रमे जागृत होकर सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है; सम्यग्दर्शनको प्राप्त होकर स्वस्वभावरूप मोक्षको प्राप्त होता है। किसी विनाशी, अशुद्ध और अन्य ऐसे भावमे उसे हर्प, शोक, संयोग उत्पन्न नहीं होता। इस विचारसे स्वस्वरूपमे ही शुद्धता, सम्पूर्णता, अविनाशता अत्यत आनंदता अंतर रहित उसके अनुभवमे आते हैं। सर्व विभावपर्यायमे मात्र स्वयको अध्याससे एकता हुई है, उससे केवल अपनी भिन्नता ही है, ऐसा स्पष्ट-प्रत्यक्ष-अत्यंत प्रत्यक्ष-अपरोक्ष उसे अनुभव होता है। विनाशी अथवा अन्य पदार्थके संयोगमे उसे इष्ट-अनिष्टता प्राप्त नही होती। जन्म, जरा, मरण, रोगादि वाधारहित सपूर्ण माहात्म्यका स्थान, ऐसा-निजस्वरूप जानकर, वेदन कर वह कृतार्थ होता है। जिनजिन पुरुषोको इन छः पदोसे सप्रमाण ऐसे परम पुरुषोके वचनसे आत्माका निश्चय हुआ है, वे सब पुरुष स्वस्वरूपको प्राप्त हुए है, आधि, व्याधि, उपाधि और सर्व सगसे रहित हुए है, होते है, और भविष्य; कालमे भी वैसे ही होगे। जिन सत्पुरुषोने जन्म, जरा और मरणका नाश करनेवाला, स्वस्वरूपमे सहज अवस्थान होनेका उपदेश दिया हैं, उन सत्पुरुषोको अत्यत भक्तिसे नमस्कार है। उनकी निष्कारण करुणाकी नित्य प्रति निरतर स्तुति करनेसे भी आत्मस्वभाव प्रगट होता है। ऐसे सर्व सत्पुरुषोके चरणारविंद सदा ही हृदयमे स्थापित रहे। . . जिसके वचन अगीकार करनेपर छः पदोसे सिद्ध ऐसा आत्मस्वरूप सहजमे प्रगट होता है, जिस आत्मस्वरूपके प्रगट होनेसे सर्व काल जीव सम्पूर्ण आनंदको प्राप्त होकर निर्भय हो जाता है, उन वचनोंके कहनेवाले सत्पुरुषके गुणोकी व्याख्या करनेकी शक्ति नही है, क्योकि जिसका प्रत्युपकार नही हो सकता, ऐसा परमात्मभाव मानो कुछ भी इच्छा किये बिना मात्र निष्कारण, करुणाशीलतासे दिया, ऐसा होनेपर भी जिसने दूसरे जीवको यह मेरा शिष्य है अथवा मेरी भक्ति करनेवाला है, इसलिये मेरा है, इस प्रकार कभी नही देखा, ऐसे सत्पुरुषको अत्यत भक्तिसे वारंवार नमस्कार हो! सत्पुरुषोने सद्गुरुकी जिस भक्तिका निरूपण किया है, वह भक्ति मात्र शिष्यके कल्याणके लिये कही है । जिस भक्तिको प्राप्त होनेसे सद्गुरुके आत्माको चेष्टामे वृत्ति रहे, अपूर्व गुण दृष्टिगोचर होकर अत्य स्वच्छन्द मिटे, और सहजमे आत्मबोध हो, ऐसा जानकर जिस भक्तिका निरूपण किया है, उस भक्तिको और उन सत्पुरुषोको पुनः पुन त्रिकाल नमस्कार हो । यद्यपि वर्तमानकालमे प्रगटरूपसे केवलज्ञानकी उत्पत्ति नही हुई, परन्तु जिसके वचनके विचारयोगसे शक्तिरूपसे केवलज्ञान है, यह स्पष्ट जाना है, श्रद्धारूपसे केवलज्ञान हुआ है, विचारदशासे केवलज्ञान हुआ है, इच्छादशासे केवलज्ञान हुआ है, मुख्य नयके हेतुसे केवलज्ञान रहता है, जिसके योगसे - जीव सर्व अव्यावाध सुखके प्रगट करनेवाले उस केवलज्ञानको सहजमात्रमे प्राप्त करने योग्य हुआ, उस सत्पुरुषके उपकारको सर्वोत्कृष्ट भक्तिसे नमस्कार हो । नमस्कार हो ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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