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________________ २७ वॉ वर्ष ४०१ पावहारिक प्रसगोकी नित्य चित्रविचित्रता है । मात्र कल्पनासे उनमे सुख और कल्पनासे दु ख ऐसी उनकी स्थति है । अनुकूल कल्पनासे वे अनुकूल भासित होते है, प्रतिकूल कल्पनासे वे प्रतिकूल भासित होते है, र ज्ञानी पुरुषोने उन दोनो कल्पनाओके करनेका निषेध किया है। और आपको वे करनी योग्य नही । विचारवानको शोक योग्य नहीं है ऐसा श्री तीर्थकर कहते थे। ४९३ बबई, फागुन, १९५० अनन्य शरणके दाता ऐसे श्री सद्गुरुदेवको अत्यत भक्तिसे नमस्कार जो शुद्ध आत्मस्वरूपको प्राप्त हुए है, ऐसे ज्ञानीपुरुषोने नीचे कहे हुए छ पदोको सम्यग्दर्शनके नवासके सर्वोत्कृष्ट स्थानक कहे है प्रथम पद-'आत्मा है।' जैसे घटपटादि पदार्थ हैं, वैसे आत्मा भी है। अमुक गुण होनेके कारण से घटपटादिके होनेका प्रमाण है, वैसे स्वपरप्रकाशक चैतन्यसत्ताका प्रत्यक्ष गुण जिसमे है, ऐसा आत्माके नेका प्रमाण है। दूसरा पद-'आत्मा नित्य है।' घटपटादि पदार्थ अमुक कालवर्ती है। आत्मा त्रिकालवर्ती है । |टपटादि सयोगजन्य पदार्थ है। आत्मा स्वाभाविक पदार्थ है, क्योकि उसकी उत्पत्तिके लिये कोई भी योग अनुभव योग्य नही होते । किसी भी सयोगी द्रव्यसे चेतनसत्ता प्रगट होने याग्य नहीं है, इसलिये अनुत्पन्न है । असयोगी होनेसे अविनाशी है, क्योकि जिसकी उत्पत्ति किसी सयोगसे नही होती, उसका कसीमे लय भी नही होता। तीसरा पद-'आत्मा कर्ता है।' सर्व पदार्थ अर्थक्रियासम्पन्न है। किसी न किसी परिणाम-क्रियासहित ही सर्व पदार्थ देखनेमे आते है। आत्मा भी क्रियासपन्न है। क्रियासस्पन्न है. इसलिये कर्ता है । वो जिनने उस कर्तृत्वका विविध विवेचन किया है-परमार्थसे स्वभावपरिणति द्वारा आत्मा निजस्वरूपका कर्ता है। अनुपचरित (अनुभवमे आने योग्य, विशेष सम्बन्धसहित) व्यवहारसे यह आत्मा द्रव्यकर्मका कर्ता है । उपचारसे घर, नगर आदिका कर्ता है। चौथा पद-'आत्मा भोक्ता है। जो जो कुछ क्रियाएँ हैं वे सब सफल है, निरर्थक नही । जो कुछ भी किया जाता है उसका फल भोगनेमे आता है, ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव है। जैसे विप खानेसे विषका फल, मसरी खानेसे मिसरीका फल, अग्निस्पर्शसे अग्निस्पर्शका फल, हिमका स्पर्श करनेसे हिमस्पर्शका फल हए विना नही रहता, वैसे कषायादि अथवा अकषायादि जिस किसी भी परिणामसे आत्मा प्रवृत्ति करता है -उसका फल भी होने योग्य ही है, और वह होता है। उस क्रियाका कर्ता होनेसे आत्मा भोक्ता है। पाँचवाँ पद-'मोक्ष पद है।' जिस अनुपचरित व्यवहारसे जीवके कर्मके कर्तृत्वका निरूपण किया, कर्तृत्व होनेसे भोक्तृत्वका निरूपण किया, उस कर्मकी निवृत्ति भी है, क्योकि प्रत्यक्ष कपायादिकी तीव्रता हो, परतु उसके अनभ्याससे, उसके अपरिचयसे, उसका उपशम करनेसे उसकी मदता दिखायी देती है, वह क्षीण होने योग्य दोखता है, क्षीण हो सकता है । वह बधभाव क्षीण हो सकने योग्य होनेसे, उससे रहित जो शुद्ध आत्मस्वभाव है, वही मोक्षपद है। छठा पद-'उस मोक्षका उपाय है।' यदि कभी ऐसा हो हो कि कर्मवध मात्र हआ करे तो उसकी निवृत्ति किसी कालमे सम्भव नहीं है, परतु कर्मवधसे विपरीत स्वभाववाले ज्ञान, दर्शन, समाधि, वैराग्य, भक्ति आदि साधन प्रत्यक्ष है, जिन साधनोके बलसे कर्मवध शिथिल होता है, उपशान्त होता है, क्षीण होता है । इसलिये वे ज्ञान, दर्शन, सयम आदि मोक्षपदके उपाय है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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