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________________ २७ वॉ वर्ष ३९७ ४८३ मोहमयी, माघ वदी ४, शुक्र, १९५० परमस्नेही श्री सोभाग, श्री अजार । आपके पत्र पहुँचे हैं। उसके साथ जो प्रश्नोकी सूची उतारकर भेजी है वह पहुँची है । उन प्रश्नोमे जो विचार प्रदर्शित किये हैं, वे प्रथम विचारभूमिकामे विचारणीय है। जिस पुरुषने वह ग्रन्थ बनाया है, उसने वेदातादि शास्त्रके अमुक ग्रथके अवलोकनके आधार पर वे प्रश्न लिखे है। अत्यन्त आश्चर्य योग्य वार्ता इसमे नही लिखी। इन प्रश्नोका तथा इस प्रकारके विचारोका बहुत समय पहले विचार किया था, और ऐसे विचारोकी विचारणा करनेके सम्बन्धमे आपको तथा गोसलियाको सूचित किया था। तथा दूसरे वैसे मुमुक्षुको वैसे विचारोके अवलोकन करनेके विपयमे कहा था, अथवा कहनेकी इच्छा हो आती है कि जिन विचारोकी विचारणासे अनुक्रमसे सद्-असद्का पूरा विवेक हो सके। अभी सात-आठ दिन हुए शारीरिक स्थिति ज्वरग्रस्त थी, अब दो दिनसे ठीक है। कविता भेजी, सो मिली है। उसमे आलापिकाके भेदके रूपमे अपना नाम बताया है और कविता करनेमे जो कुछ विचक्षणता चाहिये उसे बतानेका विचार रखा है। कविता ठीक है। कविताका आराधन कविताके लिये करना योग्य नहीं है, ससारके लिये आराधन करना योग्य नहीं है, भगवद्भजनके लिये, आत्मकल्याणके लिये यदि उसका प्रयोजन हो तो जीवको उस गुणकी क्षयोपशमताका फल मिलता है। जिस विद्यासे उपशम गुण प्रगट नही हुआ, विवेक नही आया अथवा समाधि नही हुई उस विद्याके विषयमे श्रेष्ठ जीवको आग्रह करना योग्य नहीं है। हालमे अब प्राय मोतीकी खरीद बन्द रखी है । जो विलायतमे हैं उनको अनुक्रमसे वेचनेका विचार रखा है । यदि यह प्रसग न होता तो उस प्रसगमे उत्पन्न होनेवाला जजाल और उसका उपशमन नही होता । अब वह स्वसवेद्यरूपसे अनुभवमे आया है। वह भी एक प्रकारके प्रारब्ध निवर्तनरूप है । सविस्तर ज्ञानवार्ताका अब पत्र लिखेंगे, तो बहुत करके उसका उत्तर लिखूगा। लि० आत्मस्वरूप। ४८४ मोहमयी, माघ वदी ८ गुरु, १९५० परमस्नेही श्री सोभाग, श्री अजार । यहाँके उपाधिप्रसगमे कुछ विशेष सहनशीलतासे रहना पड़े, ऐसी ऋतु होनेसे आत्मामे गुणकी विशेष स्पष्टता रहती है। प्राय अवसे यदि हो सके तो नियमितरूपसे कुछ सत्सगको बात लिखियेगा। आ० स्व० से पणाम। ४८५ ववई, फागुन सुदी ४, रवि, १९५० परमस्नेही श्री सुभाग्य, श्री अजार | अभी वहाँ उपाधिके अवकाशसे कुछ पढने आदिका प्रकार होता हो, वह लिखियेगा। ___ अभी डेढसे दो मास हुए उपाधिके प्रसगमे विशेष विशेपरूपसे ससारके स्वरूपका वेदन किया गया हे । यद्यपि पूर्वकालमे ऐसे अनेक प्रसगोका वेदन किया है, तथापि प्राय ज्ञानपूर्वक वेदन नही किया। इस देहमे और इससे पहलेकी बोधवीजहेतुपाली देहमे होनेवाला वेदन मोक्षकार्यमे उपयोगी है। बड़ौदावाले माफुभाई यहां है । प्रवृत्तिमे उनका साथ रहने और कार्य करनेका हुआ करता है,
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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