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________________ ३९६ श्रीमद् राजचन्द्र नीचेका वचन आपके पास लिखे हुए वचनोमे लिख दीजियेगा। "जीवकी मूढताका पुन पुन , क्षण क्षणमे, प्रसग प्रसगपर विचार करनेमे यदि सावधानी न रख गई तो ऐसा योग जो हुआ ह भी वृथा ह।" । कृष्णदासादि मुमुक्षुओको नमस्कार । ४८० बबई, पौष सुदी ५, १९५० किसी भी जीवको कुछ भी परिश्रम देना, यह अपराध है। और उसमे मुमुक्षुजीवको उसके अर्थके सिवाय परिश्रम देना, यह अवश्य अपराध है, ऐसा हमारे चित्तका स्वभाव रहता है। तथापि परिश्रमका हेतु ऐसे कामका प्रसग क्वचित् आपको बतानेका होता है, जिस विषयके प्रसगमे हमारे प्रति आपकी नि शकता है, तथापि आपको वैसे प्रसगमे क्वचित् परिश्रमका कारण हो, यह हमारे चित्तमे सहन नही होता, तो भी प्रवृत्ति करते हैं । यह अपराध क्षमा योग्य है, और हमारी ऐसी किसी प्रवृत्तिके प्रति क्वचित् भी अस्नेह न हो, इतना ध्यान भी रखा गोग्य है। ____ साथका पत्र श्री रेवाशंकरका है, वह हमारी प्रेरणासे लिखा गया है। जिस प्रकारसे किसीका मन दुखी न हो उस प्रकारसे वह कार्य करनेकी जरूरत है, और तत्सम्बन्धी प्रसगमे कुछ भो चित्तव्याकुलता न हो, इतना ध्यान रखना योग्य है। ४८१ पौष वदी १, मगल, १९५० आज यह पत्र लिखनेका हेतु यह है कि हमारे चित्तमे विशेष खेद रहता है। खेदका कारण यह व्यवहाररूप प्रारब्ध रहता है, वह किसी प्रकारसे है, कि जिसके कारण मुमुक्षुजीवको क्वचित् वैसा परिश्रम देनेका प्रसग आता है। और वैसा परिश्रम देते हुए हमारी चित्तवृत्ति सकोचवश होती-होती प्रारब्धक उदयसे रहती है । तथापि तद्विषयक सस्कारित खेद कई बार स्फुरित होता रहता है। कभी कभी वैसे प्रसगसे हमने लिखा हो अथवा श्री रेवाशंकरने हमारी अनुमतिसे लिखा हो तो वह कोई व्यावहारिक दृष्टिका कार्य नही है, कि जो चित्तकी आकुलता करनेके प्रति प्रेरित किया गया हो, ऐसा निश्चय स्मरणयोग्य है। ४८२ बबई, पौष वदी १४, रवि, १९५० अभी विशेषरूपसे लिखनेका नही होता, इसमे उपाधिकी अपेक्षा चित्तका सक्षेपभाव विशेष कारणरूप है । (चित्तका इच्छारूपमें कुछ प्रवर्तन होना सक्षिप्त हो, न्यून हो वह सक्षेपभाव यहाँ लिखा है।) हमने ऐसा वेदन किया है, कि जहाँ कुछ भी प्रमत्तदशा होती है वहाँ आत्मामे जगतप्रत्ययो कामका अवकाश होना योग्य है। जहाँ केवल अप्रमत्तता रहती है वहाँ आत्माके सिवाय अन्य किसी भी भावका अवकाश नहीं रहता, यद्यपि तीर्थकरादिक सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेनेके पश्चात् किसी प्रकारको देहक्रियासहित दिखायी देते हैं, तथापि आत्मा, इस क्रियाका अवकाश प्राप्त करे तभी कर सके, ऐसी कोई क्रिया उस ज्ञानक पश्चात् नही हो सकती, और तभी वहाँ सम्पूर्ण ज्ञान टिकता है, ऐसा ज्ञानीपुरुषोका असदिग्ध निधार है। ऐसा हमे लगता है। जैसे ज्वरादि रोगमे चित्तको कोई स्नेह नही होता वैसे इन भावोमे भी स्नेह नहा रहता, लगभग स्पष्टरूपसे नही रहता, और उस प्रतिबंधके अभावका विचार हुआ करता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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