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________________ ३८३ २६ वा वर्ष ४५४ बम्बई, प्रथम आपाढ वदी ४, सोम, १९४९ यदि स्पष्ट प्रीतिसे समार करनेकी इच्छा होती हो तो उस पुरुपने ज्ञानीके वचन सुने नही हैं; अथवा ज्ञानीपुरुषके दर्शन भी उसने किये नही है ऐसा तीर्थंकर कहते हैं । जिसकी कमर टूट गई है, उसका प्रायः सारा बल परिक्षीणताको प्राप्त होता है। जिसे ज्ञानीपुरुषके वचनरूप लकडीका प्रहार हुआ है उस पुरुषमे उस प्रकारसे ससार सम्बन्धी वल होता है, ऐसा तीर्थंकर कहते है। ____ ज्ञानीपुरुषको देखनेके बाद स्त्रीको देखकर यदि राग उत्पन्न होता हो तो उसने ज्ञानीपुरुषको नही देखा, ऐसा आप समझें। ज्ञानीपुरुषके वचन सुननेके बाद स्त्रीका सजीवन शरीर अजीवनरूपसे भासे बिना नही रहेगा। धनादि सम्पत्ति वास्तवमे पृथ्वीका विकार भासित हुए बिना नही रहेगा। ज्ञानीपुरुषके सिवाय उसका आत्मा और कही भी क्षणभर स्थायो होना नही चाहेगा। इत्यादि वचनोका पूर्वकालमे ज्ञानीपुरुष मार्गानुसारो पुरुषोको बोध देते थे। जिन्हे जानकर, सुनकर वे सरल जीव आत्मामे अवधारण करते थे। प्राणत्याग जैसे प्रसंगमे भी वे उन वचनोको अप्रधान न करने योग्य जानते थे, वर्तन करते थे। आप सर्व मुमुक्षुभाइयोको हमारा भक्तिभावसे नमस्कार पहुँचे। हमारा ऐसा उपाधियोग देखकर अन्तरमे क्लेशित हुए बिना जितना हो सके उतना आत्मा सम्बन्धी अभ्यास बढानेका विचार करे। सर्वसे अधिक स्मरणयोग्य बातें तो बहुतसी है, तथापि ससारमे एकदम उदासीनता, परके अल्पगणोमे भी प्रीति, अपने अल्पदोषोमे भी अत्यन्त क्लेश, दोषके विलयमे अत्यन्त वीर्यका स्फुरना, ये वाते सत्सगमे केवल शरणागतरूपसे अखण्ड ध्यानमे रखने योग्य हैं। यथासम्भव निवृत्तिकाल, निवृत्तिक्षेत्र, निवत्तिद्रव्य और निवृत्तिभावका सेवन कीजिये। तीर्थंकर गौतम जैसे ज्ञानीपुरुषको भी सम्बोधन करते थे कि समयमात्र भी प्रमाद योग्य नही है। प्रणाम। ४५५ बम्बई, प्रथम आषाढ वदी १३ मंगल, १९४९ अनुकूलता, प्रतिकूलताके कारणमे विपमता नही है। सत्सगके कामीजनको यह क्षेत्र विषम जैसा है। किसी किसी उपाधियोगका अनुक्रम हमे भी रहा करता है। इन दो कारणोकी विस्मृति करते हुए भी जिस घरमे रहना है उसकी कितनी ही प्रतिकूलता है, इसलिये अभी आप सब भाइयोका विचार कुछ स्थगित करने योग्य (जैसा) है। ४५६ वम्बई, प्रथम आषाढ वदी १४, बुध, १९४९ प्राय प्राणी आशासे जीते हैं। जैसे जैसे सज्ञा विशेप होती जाती है, वैसे वैसे विशेष आगाके वलसे जीना होता है। एक मात्र जहाँ आत्मविचार और आत्मज्ञानका उद्भव होता है, वहाँ सर्व प्रकारको आशाकी समाधि होकर जीवके स्वरूपसे जिया जाता है। जो कोई भी मनुष्य इच्छा करता है वह भविष्यमे उसकी प्राप्ति चाहता है, और उस प्राप्तिको इच्छारूप आशासे उसकी कल्पनाका जोना है, और वह
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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