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________________ श्रीमद् राजचन्द्र गत सालके मार्गशीर्ष मासमे यहाँ आना हुआ, तभोसे उत्तरोत्तर उपाधियोग विशेषाकार होता, आया है, और बहुत करके उस उपाधियोगका विशेष प्रकारसे उपयोग द्वारा वेदन करना पडा है । इस कालको तीर्थकरादिने स्वभावत दुपम कहा है । उसमे विशेष करके प्रयोगसे अनार्यता के योग्यभूत ऐसे इन क्षेत्रोमे यह काल वलवानरूपसे रहता है । लोगो की आत्मप्रत्यय योग्यबुद्धि अत्यन्त नाश हो जाने योग्य हुई है, ऐसे सब प्रकारके दुषमयोगमे व्यवहार करते हुए परमार्थका विस्मरण अत्यन्त सुलभ है । ओर परमार्थका स्मरण अत्यन्त अत्यन्त दुर्लभ हे । आनदघनजीने चौदहवे जिनके स्तवनमे कहा है, उसमे इस क्षेत्रकी दुपमता इतनी विशेषता है, और आनदघनजीके कालकी अपेक्षा वर्तमानकाल विशेष दुपमपरिणामी है । उसमे यदि किसी आत्मप्रत्ययी पुरुपके लिये वचने योग्य कोई उपाय हो तो वह एक मात्र निरन्तर अविच्छिन्न धारासे सत्सगकी उपासना करना यही प्रतीत होता है । ३८२ प्राय सर्व कामनाओके प्रति उदासीनता है, ऐसे हमको भी यह सर्व व्यवहार और कालादि, गो खाते खाते ससारसमुद्रको मुश्किलसे तरने देता है । तथापि प्रति समय उस परिश्रमका अत्यन्त प्रस्वेद उत्पन्न हुआ करता है, और उत्ताप उत्पन्न होकर सत्सगरूप जलकी तृषा अत्यन्तरूपसे रहा करती है, और यही दुख लगा करता है । ऐसा होनेपर भी ऐसे व्यवहारका सेवन करते हुए उसके प्रति द्वेपपरिणाम करना योग्य नही है, ऐसा जो सर्व ज्ञानीपुरुपोका अभिप्राय है, वह उस व्यवहारको प्राय. समतासे कराता है | आत्मा उस विषयमे मानो कुछ करता नही है, ऐसा लगा करता है । विचार करनेसे ऐसा भी नही लगता कि यह जो उपाधि उदयवर्ती है, वह सर्व प्रकारसे कष्टरूप है । पूर्वोपार्जित प्रारब्ध जिससे शान्त होता है, वह उपाधि परिणामसे आत्मप्रत्ययो कहने योग्य है । मनमे ऐसा ही रहा करता है कि अल्पकालमे यह उपाधियोग मिटकर बाह्याभ्यन्तर निर्ग्रन्थता प्राप्त हो तो अधिक योग्य है । तथापि यह बात अल्पकालमे हो ऐसा नही सूझता, और जब तक ऐसा नही होता तब तक वह चिन्ता मिटनी सम्भव नही है । दूसरा सव व्यवहार वर्तमानमे ही छोड़ दिया हो, तो यह हो सकता है । दो तीन उदय व्यवहार ऐसे हैं कि जो भोगने से ही निवृत्त हो सकते हैं, और कष्टसे भी उस विशेष कालकी स्थितिमेसे अल्पकालमे उनका वेदन नही किया जा सकता ऐसे है, और इसी कारणसे मूर्खकी भाँति इस व्यवहारका सेवन किया करते हैं । किसी द्रव्यमे, किसी क्षेत्रमे, किसी कालमे, किसी भावमे स्थिति हो, ऐसा प्रसग मानो कही भी दिखायी नही देता ! केवल सर्व प्रकार की उसमेसे अप्रतिबद्धता ही योग्य है, तथापि निवृत्तिक्षेत्र और निवृत्तिकाल, सत्सग और आत्मविचारमे हमे प्रतिवद्ध रुचि रहती है । वह योग किसी प्रकारसे भी यथासम्भव थोडे कालमे हो, इसी चिन्तनमे अहोरात्र रहते हैं । आपके समागम की अभी विशेष इच्छा रहती है, तथापि उसके लिये किसी प्रसगके बिना योग न करना, ऐसा रखना पड़ा है ओर उसके लिये बहुत विक्षेप रहता है । आपको भी उपाधियोग रहता है। उसका विकटतासे वेदन किया जाये, ऐसा है, तथापि मौनरूपसे, समतासे उसका वेदन करना, ऐसा निश्चय रखें। उस कर्मका वेदन करनेसे अन्तरायका वल कम होगा । क्या लिखें ? और क्या कहे ? एक आत्मवार्ताने ही अविच्छिन्न काल रहे, ऐसे आप जैसे पुरुषके सत्संग के हम दास है | अत्यन्त नम्रतासे हमारा चरणके प्रति नमस्कार स्वीकार कीजिये । यही विनती । दासानुदास रायचदके प्रणाम पढ़ियेगा ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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