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________________ २५ वाँ वर्ष ३६३ २ ऐसी कुछ अचपलता प्राप्त होनेके पश्चात् दायें चक्षुमे सूर्य और बायें चक्षुमे चद्र स्थित है, ऐसी भावना करना। ३. यह भावना जब तक उस पदार्थके आकारादिका दर्शन न कराये तब तक सुदृढ करना। , ४. वैसी सुदृढता होनेके बाद चन्द्रको दक्षिण चक्षुमे और सूर्यको वाम चक्षुमे स्थापित करना । ५. यह भावना जब तक उस पदार्थके आकारादिका दर्शन न कराये तब तक सुदृढ करना । यह जो दर्शन कहा है वह भासमान दर्शन समझना। . ६. यह दो प्रकारकी उलट सुलट भावना सिद्ध होनेपर भ्रकुटिके मध्यभागमे उन दोनोका चितन करना। ७. प्रथम वह चिंतन आँख खुली रखकर करना। ८. अनेक प्रकारसे उस चितनके दृढ होनेके बाद आँख बन्द रखना। उस पदार्थके दर्शनकी भावना करना। ___९ उस भावनासे दर्शन सुदृढ होनेके बाद हृदयमे एक अष्टदलकमलका चिन्तन करके उन दोनो पदार्थोको अनुक्रमसे स्थापित करना। . १० हृदयमे ऐसा एक अष्टदलकमल माननेमे आया है, तथापि वह विमुखरूपसे रहा है, ऐसा माननेमे आया है, इसलिये उसका सन्मुखरूपसे चिंतन करना, अर्थात् सुलटा चिन्तन करना। ११ उस अष्टदलकमलमे प्रथम चन्द्रके तेजको स्थापित करना फिर सूर्यके तेजको स्थापित करना, और फिर अखण्ड दिव्याकार अग्निको ज्योतिको स्थापित करना। १२ उस भावके दृढ होनेपर जिसका ज्ञान, दर्शन और आत्मचारित्र पूर्ण है ऐसे श्री वीतरागदेवको प्रतिमाका महातेजोमय स्वरूपसे उसमे चिन्तन करना। १३ उस परम दिव्य प्रतिमाका न बाल, न युवा और न वृद्ध, इस प्रकार दिव्यस्वरूपसे चिन्तन करना। १४ सपूर्ण ज्ञान, दर्शन उत्पन्न होनेसे स्वरूपसमाधिमे श्री वीतरागदेव यहाँ हैं, ऐसी भावना करना। १५. स्वरूपसमाधिमे स्थित वीतराग आत्माके स्वरूपमे तदाकार ही है, ऐसी भावना करना। १६ उनके मूर्धस्थानसे उस समय ॐकारकी ध्वनि हो रही है, ऐसी भावना करना। १७ उन भावनाओके दृढ होनेपर वह ॐकार सर्व प्रकारके वक्तव्य ज्ञानका उपदेश करता हैं, ऐसी भावना करना। १८ जिस प्रकारके सम्यक्मार्गसे वीतरागदेव वीतराग निष्पन्नताको प्राप्त हुए ऐसा ज्ञान उस उपदेशका रहस्य है, ऐसा चिंतन करते हुए वह ज्ञान क्या है ? ऐसी भावना करना । १९ उस भावनाके दृढ होनेके बाद उन्होंने जो द्रव्यादि पदार्थ कहे हैं, उनको भावना करके आत्माका स्वस्वरूपमे चिन्तन करना, सर्वांग चिन्तन करना । ध्यानके अनेकानेक प्रकार हैं। उन सबमे श्रेष्ठ ध्यान तो वह कहा जाता है कि जिसमे आत्मा मुख्यरूपसे रहता है, और इसी आत्मध्यानकी प्राप्ति प्राय आत्मज्ञानको प्राप्तिके बिना नहीं होती । ऐसा जो आत्मज्ञान वह यथार्थ वोधको प्राप्तिके सिवाय उत्पन्न नहीं होता। इस यथार्थ बोधकी प्राप्ति प्राय. क्रमसे बहतसे जीवोको होती है, और उसका मुख्य मार्ग, उस बोधस्वरूप ज्ञानीपुरुपका आश्रय या सग और उसके प्रति बहुमान, प्रेम है । ज्ञानीपुरुपका वैसा वैसा सग जीवको अनतकालमै बहुत बार हो चुका है तथापि यह पुरुप ज्ञानो है, इसलिये अब उसका आश्रय ग्रहण करना, यही कर्तव्य है, ऐसा जोवको लगा नही है, और इसी कारण जीवका परिभ्रमण हुआ है ऐसा हमे तो दृढ़तासे लगता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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