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________________ ३६२ श्रीमद् राजचन्द्र का सेवन करता हुआ देखनेमे आता है, और उस प्रसगपर मृत्युके शोकसे अत्यन्त अधिक शोक होता है यह नि सन्देह है। ऐसा होनेसे और गृहस्थ प्रत्यया प्रारब्ध जब तक उदयमे रहे तव तक 'सर्वथा' अयाचकताका सेवन करनेवाला चित्त रहनेमे ज्ञानीपुरुषोका मार्ग निहित है, इस कारण इस उपाधियोगका सेवन करते हैं । यति उस मार्गकी उपेक्षा करें तो भी ज्ञानीका अपराध नहीं करते, ऐसा है, फिर भी उपेक्षा नही हो सकती यदि उपेक्षा करें तो गृहाश्रमका सेवन भी वनवासीरूपसे हो, ऐसा तीन वैराग्य रहता है। सर्व प्रकारके कर्तव्यके प्रति उदासीन ऐसे हमसे कुछ हो सकता हो तो एक यही हो सकता है कि पूर्वोपाजितका समताभावसे वेदन करना, और जो कुछ किया जाता है वह उसके आधारसे किया जात है, ऐसी स्थिति है। हमारे मनमे ऐसा आ जाता है कि हम ऐसे हैं कि जो अप्रतिबद्धरूपसे रह सकते है, फिर भी ससार के बाह्य प्रसगका, अतर प्रसगका, और कुटुम्बादि स्नेहका सेवन करना नही चाहते, तो आप जैसे मार्गेच्छा. वानको उसके अहोरात्र सेवन करनेका अत्यन्त उद्वेग क्यो नही होता कि जिसे प्रतिवद्धतारूप भयकर यमका साहचर्य रहता है ? ज्ञानीपुरुषका योग होनेके बाद जो ससारका सेवन करता है, उसे तीर्थंकर अपने मार्गसे बाहर कहते हैं। ___ कदाचित् ज्ञानीपुरुषका योग होनेके बाद जो ससारका सेवन करते हैं, वे सब तीर्थंकरोंके मार्गसे वाहर कहने योग्य हो तो श्रेणिकादिमे मिथ्यात्वका सभव होता हे ओर विसवादिता प्राप्त होती है । उस विसवादितासे युक्त वचन यदि तीर्थकरका हो तो उसे तीर्थकर कहना योग्य नही है।। ज्ञानीपुरुपका योग होनेके बाद जो आत्मभावसे, स्वच्छदतासे, कामनासे, रससे, ज्ञानीके वचनोकी उपेक्षा करके, 'अनुपयोगपरिणामी' होकर मसारका सेवन करता है, वह पुरुप तीर्थंकरके मार्गसे बाहर है, ऐसा कहनेका तीर्थकरका आशय है । ४१५ ववई, आसोज, १९४८ किसी भी प्रकारके अपने आत्मिक वधनको लेकर हम ससारमे नही रह रहे हैं । जो स्त्री है उससे पूर्वमे वधे हुए भोगकर्मको निवृत्त करना है । कुटुम्ब हे उसके पूर्वमे लिये हुए ऋणको देकर निवृत्त होनेके लिये रह रहे हैं। रेवाशकर है उसका हमारेसे जो कुछ लेना है उसे देनेके लिये रह रहे हैं। उसके सिवायके जो जो प्रसग हैं वे उसके अन्दर समा जाते है। तनके लिये, धनके लिये, भोगके लिये, सुखके लिये स्वार्थके लिये अथवा किसी प्रकारके आत्मिक वधनसे हम ससारमे नही रह रहे हैं । ऐसा जो अतरगका भेद उसे, जिस जीवको मोक्ष निकटवर्ती न हो, वह जीव कैसे समझ सकता है ? दुखके भयसे भी ससारमे रहना रखा है, ऐसा नही है। मान-अपमानका तो कुछ भेद है, वह निवृत्त हो गया है। ___ईश्वरेच्छा हो और हमारा जो कुछ स्वरूप है वह उनके हृदयमे थोडे समयमे आये तो भले और हमार विषयमे पूज्यबुद्धि हो तो भले, नहीं तो उपर्युक्त प्रकारसे रहना अव तो होना भयकर लगता है। ४१६ वबई, आसोज, १९४८ जिस प्रकारसे यहां कहनेमे आया था उम प्रकारसे भी सुगम ऐसा ध्यानका स्वरूप यहाँ लिखा है। १. किसी निर्मल पदार्यमें दृप्टिको स्थापित करनेका अभ्यास करके प्रयम उसे अचपल स्थितिमे लाना।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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