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________________ २५ वो वर्ष ૨૧૨ मताग्रहमे बुद्धिको उदासीन करना योग्य है, और अभी तो गृहस्थधर्मका अनुसरण करना भी योग्य है । अपने हितरूप जानकर या समझकर आरम्भ-परिग्रहका सेवन करना योग्य नहीं है, और इस परमार्थका वारवार विचार करके सद्ग्रन्थका पठन, श्रवण, मननादि करना योग्य है। यही विनती। निष्काम यथायोग्य। ४०८ बबई, भादो वदी ८, बुध, १९४८ ॐनमस्कार जिस जिस कालमे जो जो प्रारब्ध उदयमे आता है उसे भोगना, यही ज्ञानीपुरुषोका सनातन आचरण है, और यह आचरण हमे उदयरूपसे रहता है, अर्थात् जिस ससारमे स्नेह नही रहा, उस ससारके कार्यकी प्रवृत्तिका उदय है, और उदयका अनुक्रमसे वेदन हुआ करता है। इस उदयके क्रममे किसी भी प्रकारकी हानि-वृद्धि करनेकी इच्छा उत्पन्न नही होती, और ऐसा जानते है कि ज्ञानोपुरुषोका भी यह सनातन आचरण है, तथापि जिसमे स्नेह नही रहा, अथवा स्नेह रखनेकी इच्छा निवृत्त हुई है, अथवा निवृत्त होने आयी है, ऐसे इस ससारमे कार्यरूपसे कारणरूपसे प्रवर्तन करनेकी इच्छा नही रही, उससे निवृत्ति ही आत्मामे रहा करती है, ऐसा होनेपर भी उसके अनेक प्रकारके सग-प्रसगमे प्रवर्तन करना पड़ता हे ऐसा पूर्वमे किसी प्रारब्धका उपार्जन किया है, जिसे समपरिणामसे वेदन करते है तथापि अभी भी कुछ समय तक वह उदययोग है, ऐसा जानकर कभी खेद पाते हैं, कभी विशेष खेद पाते हैं; और विचारकर देखनेसे तो उस खेदका कारण परानुकपा ज्ञात होता है । अभी तो वह प्रारब्ध स्वाभाविक उदयके अनुसार भोगनेके सिवाय अन्य इच्छा उत्पन्न नहीं होती, तथापि उस उदयमे अन्य किसीको सुख, दुख, राग, द्वेष, लाभ, अलाभके कारणरूप दूसरेको भासित होते हैं। उस भासनेमे लोकप्रसगकी विचित्र भ्राति देखकर खेद होता है । जिस ससारमें साक्षी कर्तारूपसे माना जाता है, उस संसारमे उस साक्षीको साक्षीरूपसे रहना, और कर्ताकी तरह भासमान होना, यह दुधारी तलवारपर चलनेके बराबर है। ऐसा होनेपर भी वह साक्षीपुरुष भ्रातिगत लोगोको किसीके खेद, दुःख, अलाभका कारण भासित न हो, तो उस प्रसगमे उस साक्षीपुरुषकी अत्यन्त विकटता नही है। हमे तो अत्यन्त अत्यन्त विकटताके प्रसंगका उदय है। इसमे भी उदासीनता यही ज्ञानीका सनातन धर्म है। ('धर्म' शब्द आचरणके अर्थमे है।) एक बार एक तिनकेके दो भाग करनेको क्रिया कर सकनेकी शक्तिका भी उपशम हो, तव जो ईश्वरेच्छा होगी वह होगा। ४०९ ववई, आसोज सुदी १, बुध, १९४८ जीवके कर्तृत्व-अकर्तृत्वका समागममे श्रवण होकर निदिध्यासन करना योग्य है। वनस्पति आदिके योगसे बंधकर पारेका चाँदी आदिरूप हो जाना, यह सभव नही है, ऐसा नहीं है। योगसिद्धिके प्रकारमे किसी तरह ऐसा होना योग्य है, और उस योगके आठ अगोमेसे जिसे पाँच अग प्राप्त हैं, उसे सिद्धियोग होता है । इसके सिवायकी कल्पना मात्र कालक्षेपरूप है। उसका विचार उदयमे आये, वह भी एक कोतुकभूत है। कोतुक आत्मपरिणामके लिये योग्य नही है । पारेका स्वाभाविक पारापन है। ४१० ववई, आसोज सुदी ७, मगल, १९४८ प्रगट आत्मस्वरूप अविच्छिन्नरूपसे भजनीय है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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