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________________ ३४९ २५ वो वर्ष उस पुरुषके स्वरूपको जानकर उसको भक्तिके सत्सगका महान फल है, जो मात्र चित्रपटके योगसे, ध्यानसे नही है। जो उस पुरुषके स्वरूपको जानता है, उसे स्वाभाविक अत्यन्त शुद्ध आत्मस्वरूप प्रगट होता है। उसके प्रगट होनेका कारण उस पुरुषको जानकर सर्व प्रकारकी ससारकामनाका परित्याग करके-अससार परित्यागरूप करके~-शुद्ध भक्तिसे वह पुरुषस्वरूप विचारने योग्य है। चित्रपटकी प्रतिमाके हृदय-दर्शनसे उपर्युक्त आत्मस्वरूपको प्रगटता' रूप महान फल है, यह वाक्य निर्विसवादी जानकर लिखा है। _ 'मन महिलानु वहाला उपरे, वीजा काम करत' इस पदके विस्तारवाले अर्थको आत्मपरिणामरूप करके उस प्रेमभक्तिको सत्पुरुषमे अत्यन्तरूपसे करना योग्य है, ऐसा सब तीथंकरोने कहा है, वर्तमानमे कहते हैं और भविष्यमे भी ऐसा ही कहेगे । उस पुरुषसे प्राप्त हुई उसकी आत्मपद्धतिसूचक भाषामे जिसका विचारज्ञान अक्षेपक हुआ है, ऐसा पुरुष, वह उस पुरुषको आत्मकल्याणका कारण समझकर, वह श्रुत (श्रवण) धर्ममे मन (आत्मा) को धारण (उस रूपसे परिणाम) करता है। वह परिणाम कैसा करना योग्य है ? 'मन महिलानु रे वहाला उपरे, बोजा काम करत' यह दृष्टात देकर उसका समर्थन किया है। घटित तो इस तरह होता है कि पुरुषके प्रति स्त्रीका काम्यप्रेम ससारके दूसरे भावोकी अपेक्षा शिरोमणि है, तथापि उस प्रेमसे अनत गुणविशिष्ट प्रेम, सत्पुरुषसे प्राप्त हुए आत्मरूप श्रुतधर्ममे करना योग्य है, परन्तु उस प्रेमका स्वरूप जहां अदृष्टातता-दृष्टान्ताभावको प्राप्त होता है, वहाँ बोधका अवकाश नही है ऐसा समझकर उस श्रुतधर्मके लिये भरतारके प्रति स्त्रीके काम्यप्रेमका परिसीमाभूत दृष्टात दिया है। सिद्धान्त वहाँ परिसीमाको प्राप्त नहीं होता। इसके आगे सिद्धान्त वाणीके पीछेके परिणामको पाता है अर्थात् वाणीसे अतीत-परे हो जाता है और आत्मव्यक्तिसे ज्ञात होता है, ऐसा है। ३९७ बबई, श्रावण वदी ११, गुरु, १९४८ शुभेच्छासम्पन्न भाई त्रिभोवन, स्थभतीर्थ । आत्मस्वरूपमे स्थिति है ऐसा जो उसके निष्काम स्मरणपूर्वक यथायोग्य पढियेगा। उस तरफका 'आज क्षायिकसमकित नहीं होता' इत्यादि सम्बन्धी व्याख्यानके प्रसगका आपका लिखा पत्र प्राप्त हुआ है। जो जीव उस उस प्रकारसे प्रतिपादन करते है, उपदेश करते हैं, और उस सबंधी विशेषरूपसे जीवोको प्रेरणा करते हैं, वे जीव यदि उतनी प्रेरणा, गवेषणा जीवके कल्याणके विषयमे करेंगे तो उस प्रश्नके समाधान होनेका कभी भी उन्हे प्रसग प्राप्त होगा। उन जीवोके प्रति दोषदृष्टि करना योग्य नहीं है, केवल निष्काम करुणासे उन जीवोको देखना योग्य है। तत्सम्बन्धी किसी प्रकारका खेद चित्तमे लाना योग्य नही है, उस उस प्रसगमे जीवको उनके प्रति क्रोधादि करना योग्य नहीं है। उन जीवोको उपदेश द्वारा समझानेका कदाचित् आपको विचार होता हो, तो भी उसके लिये नाप वर्तमानदशासे देखते हुए नो निरुपाय हैं. इसलिये अनुकपाबुद्धि और समतावुद्धिसे उन जीवोके प्रति सरल परिणामसे देखना और ऐसो ही इच्छा करना, और यही परमार्थमार्ग है, ऐसा निश्चय रखना योग्य है। अभी उन्हे जो कर्मसवधी आवरण है, उसे भग करनेकी यदि उन्हे ही चिन्ता उत्पन्न हो तो फिर आपसे अथवा आप जैसे दूसरे सत्सगीके मुखसे कुछ भी श्रवण करनेकी वारवार उन्हे उल्लास वृत्ति उत्पन्न होगी, और किसी आत्मस्वरूप सत्पुरुपके योगसे मार्गकी प्राप्ति होगी, परन्तु ऐसी चिन्ता उत्पन्न होनेका यदि उन्हें समीप योग हो तो अभी वे ऐसी चेष्टामे न रहेगे । ओर जब तक जीवको उस उमप्रकारकी चेष्टा है तव तक तीर्थकर जैसे ज्ञानीपुरुषका वाक्य भी उसके लिये निष्फल होता है, तो आप आदिके वाक्य निष्फल
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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