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________________ ३४८ श्रीमद् राजचन्द्र उस निश्चल परिणामका स्वरूप वहाँ कैसे घटित होता है ? यह पहले ही बता दिया है कि जैसे दूसरे घर काम करते हुए भी पतिव्रता स्त्रोका मन अपने प्रिय स्वामीमे रहता है वैसे। जिस पदका विशेष अर्थ आगे लिखा है, उसे स्मरणमे लाकर सिद्धातरूप उपर्युक्त पदमे सधीभूत करना योग्य है कारण कि 'मन महिलानु वहाला उपरे' यह पद दृष्टातरूप है। __ अत्यन्त समर्थ सिद्धातका प्रतिपादन करते हुए जीवके परिणाममे वह सिद्धात स्थित होनेके लिये समर्थ दृष्टात देना ठीक है, ऐसा जानकर ग्रन्थकर्ता उस स्थानपर जगतमे, ससारमे प्राय. मुख्य पुरुषके प्रति स्त्रीका 'क्लेशादि भाव' रहित जो काम्यप्रेम है उसी प्रेमको सत्पुरुपसे श्रवण किये हुए धर्ममे परिणमित करनेको कहते हैं। उस सत्पुरुप द्वारा श्रवणप्राप्त धर्ममे, दूसरे सब पदार्थोमे रहे हुए प्रेमसे उदासीन होकर, एक लक्षसे, एक ध्यानसे, एक लयसे, एक स्मरणसे, एक श्रेणिसे, एक उपयोगसे, एक परिणामस सर्व वृत्तिमे रहे हुए काम्यप्रेमको मिटाकर, श्रुतधर्मरूप करनेका उपदेश किया है। इस काम्य प्रेमसे अनन्तगुणविशिष्ट श्रुतप्रेम करना उचित हे । तथापि दृष्टात परिसीमा नही कर सका, जिससे दृष्टातकी परिसीमा जहाँ हुई वहाँ तकका प्रेम कहा है । सिद्धात वहाँ परिसीमाको प्राप्त नही किया है। ___अनादिसे जीवको ससाररूप अनत परिणति प्राप्त होनेसे अससारत्वरूप किसी अंशका उसे बोध नही हे । अनेक कारणोका योग प्राप्त होनेपर उस अशदृष्टिको प्रगट करनेका योग प्राप्त हुआ तो उस विषम ससारपरिणतिके आड़े आनेसे उसे वह अवकाश प्राप्त नही होता, जब तक वह अवकाश प्राप्त नहा होता तब तक जीव स्वप्राप्तिभानके योग्य नही है। जब तक वह प्राप्ति नही होती तब तक जीवको किसी प्रकारसे सुखी कहना योग्य नहीं है, दुःखी कहना योग्य है, ऐसा देखकर जिन्हे अत्यन्त अनन्त करुणा प्राप्त हुई है, ऐसे आप्तपुरुषने दुख मिटनेका मार्ग जाना है जिसे वे कहते थे, कहते है, भविष्यकालमे कहेगे। वह मार्ग यह है कि जिनमे जीवकी स्वाभाविकता प्रगट हुई है, जिनमे जीवका स्वाभाविक सुख प्रगट हुआ है, ऐसे ज्ञानीपुरुष ही उस अज्ञानपरिणति और उससे प्राप्त होनेवाले दुःखपरिणामको दूरकर आत्माको स्वाभाविकरूपसे समझा सकने योग्य है, कह सकने योग्य है, और वह वचन स्वाभाविक आत्मज्ञानपूर्वक होनेसे दुःख मिटानेमे समर्थ है। इसलिये यदि किसी भी प्रकारसे जीवको उस वचनका श्रवण प्राप्त हो, उसे अपूर्वभावरूप जानकर उसमे परम प्रेम रहे, तो तत्काल अथवा अमुक अनुक्रमसे आत्माकी स्वाभाविकता प्रगट होती है। ३९६ बम्बई, श्रावण वदी, १९४८ अन-अवकाश आत्मस्वरूप रहता है, जिसमे प्रारब्धोदयके सिवाय दूसरा कोई अवकाश योग नही है। उस उदयमे क्वचित् परमार्थभाषा कहनेका योग उदयमे आता है, क्वचित् परमार्थभापा लिखनेका योग उदयमे आता है, और क्वचित परमार्थभापा समझानेका योग उदयमे आता है । अभी तो वैश्यदशाका योग विशेषरूपसे उदयमे रहता है, और जो कुछ उदयमे नही आता उसे कर सकनेकी अभी तो असमर्थता है। ___ जीवितव्यको मात्र उदयाधीन करनेसे, होनेसे विषमता मिटी है । आपके प्रति, अपने प्रति, अन्यके प्रति किसी प्रकारका वैभाविक भाव प्राय. उदयको प्राप्त नही होता, और इसी कारणसे पत्रादि कार्य करनेरूप परमार्थभाषा-योगसे अवकाश प्राप्त नही है ऐसा लिखा है, वह वैसा ही है। पूर्वोपार्जित स्वाभाविक उदयके अनुसार देहस्थिति है; आत्मरूपसे उसका अवकाश अत्यन्ताभावरूप है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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