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________________ २५ वो वर्ष ३३७ । . ३७३ , बबई, वैशाख वदी १४, बुध, १९४८ मोहमयीसे जिनकी अमोहरूपसे स्थिति है, ऐसे श्री . के यथायोग्य । । "मनके कारण यह सब है" ऐसा जो अब तकका हुआ निर्णय लिखा, वह सामान्यत. तो यथातथ्य है। तथापि 'मन', 'उसके कारण', 'यह सब' और 'उसका निर्णय' ऐसे जो चार भाग इस वाक्यके होते हैं, वे बहुत समयके बोधसे यथातथ्य समझमे आते है, ऐसा मानते है। जिसे ये समझमे आते है, उसका मन वशमे रहता है, रहता है यह बात निश्चयरूप है, तथापि यदि न रहता हो, तो भी वह आत्मस्वरूपमे ही रहता है । मनके वश होनेका यह उत्तर ऊपर लिखा है, वह सबसे मुख्य लिखा है। जो वाक्य लिखे गये है वे बहुत प्रकारसे विचारणीय है। महात्माकी देह दो कारणोंसे विद्यमान रहती है-प्रारब्ध कर्मको भोगनेके लिये और जीवोके कल्याणके लिये, तथापि वे इन दोनोमे उदासीनतासे उदयानुसार प्रवृत्ति करते हैं ऐसा हम जानते हैं। ध्यान, जप, तप और क्रिया मात्र इन सबसे हमारे बताये हए किसी वाक्यको यदि परम फलका कारण समझते हो तो, निश्चयसे समझते हो तो, पीछेसे बुद्धि लोकसज्ञा, शास्त्रसज्ञापर न जाती हो तो, जाये तो वह भ्रातिसे गयी है। ऐसा समझते हो तो, और उस वाक्यका अनेक प्रकारके धैर्यसे विचार करना चाहते हो तो, लिखनेकी इच्छा होती है। अभी इससे विशेषरूपसे निश्चय-विषयक धारणा करनेके लिये लिखना आवश्यक जैसा लगता है, तथापि चित्तमे अवकाश नही है, इसलिये जो लिखा है उसे प्रबलतासे माने। ___ सब प्रकारसे उपाधियोग तो निवृत्त करने योग्य है; तथापि यदि वह उपाधियोग सत्संग आदिके लिये ही चाहा जाता हो तथा फिर चित्तस्थिति सभवरूपसे रहती हो तो उस उपाधियोगमे प्रवृत्ति करना श्रेयस्कर है। अप्रतिबद्ध प्रणाम । ३७४ बबई, वैशाख, १९४८ "चाहे जितनी विपत्तियों पडें, तथापि ज्ञानीसे सासारिक फलकी इच्छा करना योग्य नहीं है।" उदयमे आया हुआ अंतराय समपरिणामसे वेदन करने योग्य है, विषमपरिणामसे वेदन करने योग्य नही है। आपकी आजीविका सम्बन्धी स्थिति बहुत समयसे ज्ञात है, यह पूर्वकर्मका योग है। जिसे यथार्थ ज्ञान है ऐसा पुरुष अन्यथा आचरण नहीं करता, इसलिये आपने जो आकुलताके कारण इच्छा अभिव्यक्त की, वह निवृत्त करने योग्य है। ___ ज्ञानीके पास सासारिक वैभव हो तो भी मुमुक्षुको किसी भी प्रकारसे उसकी इच्छा करना योग्य नही है । प्राय ज्ञानीके पास वैसा वैभव होता है, तो वह मुमुक्षुकी विपत्ति दूर करनेके लिये उपयोगी होता है। पारमार्थिक वैभवसे ज्ञानी मुमुक्षुको सासारिक फल देना नही चाहते, क्योकि यह अकर्तव्य है-ऐसा ज्ञानी नहीं करते। धीरज न रहे ऐसी आपकी स्थिति हे ऐसा हम जानते है, फिर भी धीरजमे एक अंशकी भी न्यूनता न होने देना, यह आपका कर्तव्य है, और यह यथार्थ बोध पानेका मुख्य मार्ग है। अभी तो हमारे पास ऐसा कोई सासारिक साधन नही है कि जिससे आपके लिये धोरजका कारण होवें, परन्तु वैसा प्रसग ध्यानमे रहता है, बाकी दूसरे प्रयत्न तो करने योग्य नहीं हैं। किसी भी प्रकारसे भविष्यका सासारिक विचार छोडकर वर्तमानमे समतापूर्वक प्रवृत्ति करनेका दृढ़ निश्चय करना यह आपके लिये योग्य है। भविष्यमे जो होना योग्य होगा, वह होगा, वह अनिवार्य है, ऐसा समझकर परमार्थ-पुरुषार्थकी ओर सन्मुख होना योग्य है । ४३
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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