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________________ [.४० ] • ५७९ मौन, आत्मा सबसे अत्यत प्रत्यक्षः । ०४६३: ५९७ वर्षमानस्वामी, आदिका आत्मकल्याणका ५८० पूछने-लिखनेमें प्रतिवध नही ४६३ | " निर्धार अद्वितीय, वेदान्तकथित आत्म५८१ चेतनका चेतन पर्याय, जडका जड पर्याय ४६३ स्वरूप पूर्वापर विरोधी, जिनकथित विशेष - ५८२ आत्मवीर्यके प्रवर्तन और सकोच करनेमे • विशेष अविरोधी, सम्पूर्ण आत्मस्वरूप "विचार, आत्मदशाकी स्थिरताके लिये प्रगट करने योग्य पुरुष - ४७० असगताका ध्यान, उस तरफ अभी न आने- ५९८ अल्पकालमें उपाधिरहित होनेके लिये, का आशय ! : ४६४ विचारवानको मानदशा अयोग्य, निवृत्ति.., ५८३ एक आत्मपरिणतिके सिवाय दूसरे विषयोमें क्षेत्रमें समागम अधिक योग्य ४७० चित्त अव्यवस्थित, लोकव्यवहार अरुचिकर, ५९९ शरण और निश्चय कर्तव्य । ४७२ अचलित आत्मरूपसे रहनेकी इच्छा, स्मृति, ६०० ज्ञानीपुरुषका उपकार, कभी विचारवानको वाणी और लेखनशक्तिकी मदता ४६४ प्रवृत्तिक्षेत्रमे समागम विशेष लाभकारक, ' ५८४ 'जम निर्मलता रे', संगसे व्यतिरिक्तता।' , भीडमे, ज्ञानीपुरुषकी निर्मलदशा, नववाड' परम श्रेयरूप' ४६५ विशुद्ध ब्रह्मचर्य दशासे 'अवर्णनीय सयमसुख ४७२ ५८५ असगता और सुखस्वरूपता, स्थिरताके हेतु ४६५ / ६०१ अष्टमहासिद्धि आदि है, आत्माका सामर्थ्य ४७३ ५८६"पूर्णज्ञानी श्री ऋषभादिको भी प्रारव्योदय' - ६०२ समयकी सूक्ष्मता और रागद्वेषादि मनपरि- " । भोगना पडा, मोतीसम्बन्धी व्यापारसे । णाम और उनका उद्भव, स्वाध्याय काल : ४७४ छूटनेकी लालसा, परमार्थ एंव व्यवहार ६०३ ज्ञानीपुरुषको स्वभावस्थितिका सुख, ज्ञानीसम्वन्धी लेखनसे कटाला, वीतरागकी का दशाफेर तो भी, प्रयत्न ,स्वधर्ममें, शिक्षा-द्रव्यभाव सयोगसे छूटना , ४६५ सम्पूर्ण ज्ञानदशामे परिग्रहका अप्रसग ४७४ ५८७ केवलज्ञानसे पदार्थ किस प्रकार दिखायी ६ ०४ वचनोकी पुस्तक ५ - ४७४ देते हैं ? दीपक आदिकी भांति , - ४६७, ६०५ आत्मपरिणामकी, विभावता ही मुख्य मरण .४७५ ५८८ वीतरागकी शिक्षा द्रव्य भाव सयोगसे छूटना, . “६०६ ज्ञानका फल विरति, पूर्वकर्मकी सिद्धि . ४७५ __ अनादिको भूल, सर्व जीवोंका परमात्मत्व ४६७ । ६०७ जगमकी युक्तियाँ । .. ४७५ ५८९ वेदात ग्रन्थ वैराग्य और उपशमके लिये ४६८, ६०८ सात भर्तारवाली - - - -- ४७५ ५९० चारित्रदशाकी अनुप्रेक्षासे स्वस्थता, स्व-.., ६०९ आत्मामें -निरन्तर- परिणमन करने योग्य स्थताके बिना ज्ञान निष्फल - ४६८ वचन-सहजस्वरूपसे, स्थिति,,, - सत्सग । ५९१.ज्ञानदशाके बिना विषयको निमू लता अस निर्वाणका मुख्य हेतु, असगता, सत्सग भव, ज्ञानीपुरुषको भोगप्रवृत्ति । । ४६८ निष्फल क्यो ? सत्सगकी पहचान, आत्म- । ५९२ क्षणभगुर देहमें प्रीति क्या करें ? आत्मा कल्याणार्थ ही प्रवृत्ति से शरीर भिन्न देखनेवाले धन्य, महात्मा ६१० मिथ्याभाव प्रवृत्ति और सत्य ज्ञान, देव पुरुषोकी प्रामाणिकता- 7 - ४६८. लोकसे आनेवालोको लोभ विशेष ४७७ ५९३ सर्व ज्ञानका सार, प्रन्थिभेदके-लिये,वीर्य । | ६११ आमका विपरिणाम काल , ४७७ गति और उनके साधन - ४६९ . ६१२ अहोरात्र विचारदशा, कबीरपथीका सग ४७८ ५९४ दुखरूप काया और विचारवान , - ४६९ । ६१३ अनतानुवधी और उसके स्थानक, मुमुक्षु ५९५ वेदातादि और जिनागममें आत्मस्वरूपकी | पुरुषका भूमिकाधर्म . . ४७८ विचारणामें भेद . . . . . ४६९ ६१४ त्यागका क्रम , , . ४७९ -५९६ सर्वकी अपेक्षा वीतराग-वचन सपूर्ण ६१५ केवलज्ञान आदि सवधी -वोलोके, प्रति । प्रतीतिका स्थान - ४७० । विचारपरिणति कर्तव्य . •,४७९ ४७६
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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