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________________ कहना ? आत्माकार स्थिति, चित्त अबढ़, ससारसुखवृत्तिमे निरतर उदासीनता, सबसे अभेददृष्टि ३९९ सत्सगमें आत्मसाघन, अल्पकालमे ज्ञानीमें, ज्ञानीके आश्रयमें समपरिणाम, गुणगान करने योग्यका अवर्णवाद, उपाधिमें निरुपाधिका विसर्जन न करें こ ४०० सर्वथा अप्रतिबद्ध पुरुष, उपाधियोगमें चित्तकी अपूर्व मुक्तता ४०१ कल्याण कैसे प्राप्त हो ? जपतपादि ससाररूप होने का कारण क्या ? उपाधि ऐसी कि तीर्थंकर जैसे पुरुषके विषयमें निर्धार करना विकट दीक्षावृत्ति शात करें ४०२ उदय देखकर उदास न होवे, किसी भी जीवके प्रति दोष अकर्तव्य ४०३ आत्मा आत्मभाव प्राप्त करे वह प्रकार धर्मका, आत्मधर्मका श्रवणादि आत्मस्थित पुरुषसे ही ४१० वर अथवा शापसे शुभाशुभ कर्मका ही फल ४११ भवातरका वर्णन, भवातरका ज्ञान और आत्मज्ञान, सुवर्णवृष्टि, पूर्ण आत्मस्वरूप और महत् प्रभावयोग, दस बोलोका विच्छेद दिखाने का आशय, सर्वथा मोक्ष और चरमशरीरिता, अशरीरी भावसे आत्मस्थिति ४०४ क्षमायाचना ४०५ क्षमायाचना ४०६ इस सबके विसर्जन करनेरूप उदासीनता ४०७ दीक्षा कब योग्य और सफल ? आरभपरिग्रहका सेवन अयोग्य ४०८ ज्ञानी पुरुषो का सनातन आचरण हमे उदयरूप, साक्षीरूपसे रहना और कर्ताकी तरह भासमान होना, उपशम और ईश्वरेच्छा ४०९ पारेका चाँदी आदि रूप हो जाना, कौतुक आत्मपरिणामके लिये अयोग्य ४१२ आत्माकारता १३ स्वयंप्रकाशित ज्ञानीपुरुष यथार्थ द्रष्टा [३५] ३५२ -३५४ ,३५५ ३५६ ३५७ ३५७ ३५७ ३५८ ३५८ ३५८ ३५९ ३५९ ३५९ ३६० ३६१ ३६१ ४१४ इतना अवकाश आत्माको रहता है, ज्ञानीपुरुषोका मार्ग, तीव्र वैराग्य, तीर्थकर के 1. मार्ग से बाहर ४१५ आत्मिक-वघनसे हम समारमें नही रह रहे है, अतरगका भेद ४१६ ध्यानका स्वरूप, आत्मध्यान सर्वश्रेष्ठ, ज्ञानीपुरुषकी पहचान न होने देनेवाले तीन दोष, स्वच्छद और असत्सग ४१७ परमकृपालुदेवका उपकार ४१८ रविकै उदोत अस्त होत - ( काव्य ) ४१९ ससारका प्रतिवघ ४२० कि बहुणा -, कितना कहें ?. प्रवृत्ति कैसे करना ? - 1 ४२१ व्यवसाय- प्रसग और वर्तन, आत्माको 1 ཁ་ན अफल प्रवृत्ति ४२२ कालकी दुषमता क्यो ? परमार्थमार्ग की प्राप्ति दु खसे और उसके कारण शुष्कक्रियाप्रधानता आदिमें मोक्षमार्ग की कल्पना, शुष्क अध्यात्मी, दु.षमता होने पर भी एकावतारिता शक्य, मुमुक्षुताके लक्षण ४२३ विचारमार्गमें स्थिति ४२४ पुनर्जन्म है - जरूर है, तापमें विश्रातिका स्थान मुमुक्षु '४२५ उपाधि-वेदनके लिये अपेक्षित दृदृता मुझमें नही, चित्तका उद्वेग, देह मूर्च्छापात्र नही है, देह और आत्माकी भिन्नता ४२६ उदासीनता एक उपाय ४२७ ज्ञानीपुरुषकी सेवाके इच्छावान, अपराधयोग्य परिणाम नही ४२८ प्रमाद कम होनेके लिये सद्ग्रन्य पढ़ें ४२९ मेरी चित्तवृत्तिके विषयमें लिखनेका अर्थ, उपाघिताप या लोकसज्ञाभय ४३० सत्पुरुषोंके सप्रदायकी सनातन करुणा, लोकसवघी मार्ग मात्र ससार, सारे समूहमें कल्याण मानना योग्य नही, कल्याणमार्गके दो कारण, असगताका अर्थ, दीक्षा नवघी, प्रतिवध और तीर्थंकरदेवका मार्ग ३६१ ३६२ ३६२ ३६४ ३६४ ३६५ ३६५ ३६५ ३६६ . ३६८ ३६८ ३६८ ३६९ ३६९ ३६९ ३६९ ३७०
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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