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________________ Turtikaprthikkirtmir mirturl}ID all\\rurl}Hunitype]}IRMITTPRIMITIHITRINATHRITIC "अनन्तबार देहके लिये आत्माका उपयोग किया है। जिस देहका आत्माके लिये उपयोग होगा उस देहमे आत्मविचारका आविर्भाव होने योग्य जानकर, सर्व देहार्थकी कल्पना छोड़कर, एकमात्र आत्मार्थमे ही उसका उपयोग करना, ऐसा निश्चय मुमुक्षुजीवको अवश्य करना चाहिये।" -आक ७१९ "विषयसे जिसकी इद्रियाँ आर्त है उसे शीतल आत्मसुख, आत्मतत्त्व कहाँसे प्रतीतिमे आयेगा? 'जहाँ सर्वोत्कृष्ट शुद्धि वहाँ सर्वोत्कृष्ट सिद्धि ।' हे आर्यजनो | इस परम वाक्यका आत्मभावसे आप अनुभव करे।" -आक८३२ "लोकसज्ञा जिसकी जिंदगीका लक्ष्यबिंदु है वह जिंदगी चाहे जैसी श्रीमतता, सत्ता या कुटुम्ब परिवार आदिके योगवाली हो तो भी वह दुखका ही हेतु है। आत्मशाति जिस जिंदगीका लक्ष्यबिंदु है वह जिंदगी चाहे तो एकाकी, निर्धन और निर्वस्त्र हो तो भी परम समाधिका स्थान है।" -आक ९४९ "श्रीकृष्ण महात्मा थे और ज्ञानी होते हुए भी उदयभावसे ससारमे रहे थे, इतना जैन शास्त्रसे भी जाना जा सकता है, और यह यथार्थ है; तथापि उनकी गतिके विषयमे जो भेद बताया है उसका भिन्न कारण है। और भागवत आदिमे तो जिन श्रीकृष्णका वर्णन किया है वे तो परमात्मा ही हैं। परमात्माकी लीलाको महात्मा कृष्णके नामसे गाया है। और इस भागवत और इस कृष्णको यदि महापुरुषसे समझ ले तो जीव ज्ञान प्राप्त कर सकता है । यह बात हमे बहुत प्रिय है।" -आक २१८ "सबकी अपेक्षा वीतरागके वचनको संपूर्ण प्रतीतिका स्थान कहना योग्य है, क्योकि जहां राग आदि दोषोका सपूर्ण क्षय होता है वहां संपूर्ण ज्ञानस्वभाव प्रगट होना योग्य है ऐसा नियम है। श्री जिनेन्द्रमे सबकी अपेक्षा उत्कृष्ट वीतरागता होना सभव है, क्योकि उनके वचन प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। जिस किसी पुरुषमे जितने अशमे वोतरागताका सभव है, उतने अशमे उस पुरुषका वाक्य मानने योग्य है ।" -सस्मरण पोथी १/६१ "जैसे भगवान जिनेन्द्रने निरूपण किया है वैसे ही सर्व पदार्थका स्वरूप है। भगवान जिनेन्द्रका उपदिष्ट आत्माका समाधिमार्ग श्री गुरुके अनुग्रहसे जानकर, परम प्रयत्लसे उसकी उपासना करे।" -सस्मरण पोथी २/२१ "सर्व प्रकारसे ज्ञानीकी शरणमे बुद्धि रखकर निर्भयताका, शोकरहितताका सेवन करनेकी शिक्षा श्री तीर्थंकर जैसोने दी है, और हम भी यही कहते हैं। किसी भी कारणसे इस संसारमे क्लेशित होना योग्य नहीं है। अविचार और अज्ञान ये सर्व क्लेगके, मोहके और अशुभगतिके कारण है। सद्विचार और आत्मज्ञान आत्मगतिके कारण हैं।" -आक ४६०
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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