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________________ श्रीमद राजचंद्र विचाररत्न "परम पुरुष प्रभु सद्गुरु, परम ज्ञान सुखधाम । जेणे आप्युं भान निज, तेने सदा प्रणाम ॥" * "सर्व भावथी औदासीन्यवृत्ति करी, मात्र देह ते संयमहेतु होय जो । अन्य कारणे अन्य कशुं कल्पे नहीं, देहे पण किंचित् मूर्च्छा नव जोय जो ॥ अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे ?" आक २६६ -- आक ७३८ नाथा २ * "जिसके एक रोममे किचित् भी अज्ञान, मोह या असमाधि नही रही उस सत्पुरुषके वचन और बोधके लिये कुछ भी नही कहते हुए, उसीके वचनमे प्रशस्तभावसे पुनः पुनः प्रसक्त होना, यह भी अपना सर्वोत्तम श्रेय है । कैसी इसकी शैली | जहाँ आत्माके विकारमय होनेका अनताश भी नही रहा है। शुद्ध, स्फटिक, फेन और चद्रसे भी उज्ज्वल शुक्लध्यानकी श्रेणीसे प्रवाहरूपसे निकलते हुए उस निग्रंथके पवित्र वचनोको मुझे और आपको त्रिकाल श्रद्धा रहे । यही परमात्माके योगबलके आगे प्रयाचना ।" * "अनन्तकालसे जो ज्ञान भवहेतु होता था, उस ज्ञानको एक समयमात्रमे जात्यतर करके जिसने भवनिवृत्तिरूप किया उस कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शनको नमस्कार ।” आक ८३९ - आक ५२ * "जगतके अभिप्रायको ओर देखकर जीवने पदार्थका बोध पाया है। ज्ञानीके अभिप्रायकी ओर देखकर पाया नही है । जिस जीवने ज्ञानीके अभिप्रायसे बोध पाया है उस जीवको सम्यग्दर्शन होता है ।" -आक ३५८ + “विचारवानको देह छूटने सम्बन्धी हर्षविषाद योग्य नही है । आत्मपरिणामकी विभावता ही हानि और वही मुख्य मरण है | स्वभावसन्मुखता तथा उसकी दृढ इच्छा भी उस हर्षविषादको दूर करती है ।" --आक ६०५ * "श्री सद्गुरूने कहा है ऐसे निग्रंथमार्गका सदैव आश्रय रहे । मैं देहादिस्वरूप नही हूँ, और देह, स्त्री, पुत्र आदि कोई भी मेरे नही हैं, शुद्ध चैतन्य स्वरूप. अविनाशी ऐसा मै आत्मा हूँ, इस प्रकार आत्मभावना करते हुए रागद्वेषका क्षय होता है ।" -आफ ६९२
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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