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________________ २८२ श्रीमद् राजचन्द्र आया हो वह पश्चात्तापसे तो अन्यथा नही होता, तथापि दूसरे वैसे प्रसगमे उपदेशका कारण होता है। ऐसा ही होना योग्य था, ऐसा मानकर शोकका परित्याग करना और मात्र मायाकी प्रबलताका विचार करना यह उत्तम है । मायाका स्वरूप ऐसा है कि इसमे, जिसे 'सत्' सप्राप्त है ऐसे ज्ञानी पुरुपको भी रहना विकट है, तो फिर जिसमे अभी मुमुक्षुताके अशोकी भी मलिनता है उसे इस स्वरूपमे रहना विकट, भुलावेमे डालनेवाला और चलित करने वाला हो, इसमे कुछ आश्चर्य नही है ऐसा जरूर समझिये। ___ यद्यपि हमे उपाधियोग है, तथापि ऐसा कुछ नही है कि अवकाश नहीं मिलता, परन्तु दशा ऐसी है कि जिसमे परमार्थ सवधी कुछ न हो सके, और रुचि भी अभी तो वैसी ही रहती है। मायाका प्रपच क्षण क्षणमे वाधकर्ता है, उस प्रपचके तापकी निवृत्ति किसी कल्पद्रुमकी छाया है, और या तो केवलदशा है, तथापि कल्पद्रुमको छाया प्रशस्त है, उसके बिना इस तापकी निवृत्ति नहीं है, और इस कल्पद्रुमकी वास्तविक पहचानके लिये जोवको योग्य होना प्रशस्त है। उस योग्य होनेमे बाधकर्ता ऐसा यह माया-प्रपच है, जिसका परिचय जैसे कम हो वैसे चले बिना योग्यताके आवरणका भग नही होता। कदम-कदमपर भययुक्त अज्ञान भूमिकामे जीव बिना विचारे करोड़ो योजन चलता रहता है, वहाँ योग्यताका अवकाश कहाँसे हो ? ऐसा न होनेके लिये किये हुए कार्योके उपद्रवको यथाशक्ति शान्त करके, (इस विषयकी) सर्वथा निवृत्ति करके योग्य व्यवहारमे आनेका प्रयत्न करना उचित है । 'लाचार होकर' करना चाहिये, और वह भी प्रारब्धवशात् नि स्पृह बुद्धिसे, ऐसे व्यवहारको योग्य व्यवहार मानिये । यहाँ ईश्वरानुग्रह है। वि० रायचन्दके प्रणाम । २३३ बम्बई, चैत्र सुदी १०, १९४७ जबुस्वामीका दृष्टान्त प्रसगको प्रबल करनेवाला और बहत आनन्ददायक दिया गया है । लुटा देनेकी इच्छा होनेपर भी लोकप्रवाह ऐसा माने कि चोरो द्वारा ले जानेके कारण जबुस्वामीका त्याग है, तो यह परमार्थके लिये कलकरूप है, ऐसा जो महात्मा जबुका आशय था वह सत्य था। इस वातको यहाँ सक्षिप्त करके अब आपको प्रश्न करना योग्य है कि चित्तकी मायाके प्रसगोमे आकुलता-व्याकुलता हो, और उसमे आत्मा चिन्तित रहा करता हो, यह ईश्वरकी प्रसन्नताका मार्ग है क्या ? तथा अपनी बुद्धिसे नही, परन्तु लोकप्रवाहके कारण भी कुटुम्ब आदिके कारणसे शोकातुर होना यह वास्तविक मार्ग है क्या? हम आकुल होकर कुछ कर सकते हैं क्या? और यदि कर सकते है तो फिर ईश्वरपर विश्वास क्या फलदायक है ? ज्योतिप जैसे कल्पित विषयकी ओर सासारिक प्रसगमे निस्पृह पुरुष ध्यान देते होगे क्या? और हम ज्योतिष जानते हैं, अथवा कुछ कर सकते है, ऐसा न माने तो अच्छा, ऐसी अभी इच्छा है। यह आपको पसन्द है क्या ? सो लिखियेगा। २३४ बम्बई, चैत्र सुदी १०, शनि, १९४७ सर्वात्मस्वरूपको नमस्कार जिसके लिये अपना या पराया कुछ नही रहा है, ऐसी किसी दशाकी प्राप्ति अव समीप ही है, (इस देहमे है); और इसी कारण परेच्छासे रहते है। पूर्वकालमे जिस जिस विद्या, वोध, ज्ञान और क्रियाकी प्राप्ति हो गयी है उन सबको इस जन्ममे ही विस्मरण करके निर्विकल्प हुए विना छुटकारा नहीं है, और इसी कारण इस तरह रहते हैं। तथापि आपकी अधिक आकुलता देखकर कुछ कुछ आपको उत्तर देना पड़ा है. वह भी स्वेच्छासे नही, ऐसा होनेसे आपसे विनती है कि इस सब मायिक विद्या अथवा मायिक
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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