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________________ २४ वाँ वर्ष २७३ २१४ बबई, फागुन सुदी ५, रवि, १९४७ अभेददशा आये बिना जो प्राणी इस जगतकी रचना देखना चाहते हैं वे वधे जाते है । ऐसी दशा आनेके लिये वे प्राणी उस रचनाके कारण के प्रति प्रीति करें और अपनी अहरूप भ्रातिका परित्याग करें । उस रचनाके उपभोगकी इच्छाका सर्वथा त्याग करना योग्य है, और ऐसा होनेके लिये सत्पुरुपकी शरण जैसा एक भी औषध नही है । इस निश्चयवार्ताको न जानकर त्रितापसे जलते हुए बेचारे मोहाध प्राणियोको देखकर परम करुणा आती है और यह उद्गार निकल पडता है - 'हे नाथ | तू अनुग्रह करके इन्हे अपनी गतिमे भक्ति दे ।' आज कृपापूर्वक आपकी भेजी हुई वेदातकी 'प्रबोध शतक' नामकी पुस्तक प्राप्त हुई । उपाधिकी निवृत्तिके समयमे उसका अवलोकन करूँगा । उदयकालके अनुसार वर्तन करते है । क्वचित् मनोयोगके कारण इच्छा उत्पन्न हो तो बात अलग है परन्तु हमे तो ऐसा लगता है कि इस जगतके प्रति हमारा परम उदासीन भाव रहता है, वह बिलकुल सोनेका हो तो भी हमारे लिये तृणवत् है; और परमात्माकी विभूतिरूप हमारा भक्तिधाम है । आज्ञाकारी २१५ बबई, फागुन सुदी८, १९४७ आपका कृपापत्र प्राप्त हुआ । इसमे पूछे गये प्रश्नोका सविस्तर उत्तर यथासम्भव शीघ्र लिखूंगा । ये प्रश्न ऐसे पारमार्थिक हैं कि मुमुक्षु पुरुषको उनका परिचय करना चाहिये । हजारो पुस्तको पाठीको भी ऐसे प्रश्न नही उठते, ऐसा हम समझते है । उनमे भी प्रथम लिखा हुआ प्रश्न ( जगत के स्वरूपमे मतातर क्यो है ? ) तो ज्ञानी पुरुष अथवा उनकी आज्ञाका अनुसरण करनेवाला पुरुष ही खडा कर सकता है । यहाँ मनमानी निवृत्ति नही रहती, जिससे ऐसी ज्ञानवार्ता लिखनेमे जरा विलब करनेकी जरूरत होती है । अन्तिम प्रश्न हमारे वनवासका पूछा है, यह प्रश्न भी ऐसा है कि ज्ञानीकी ही अतर्वृत्तिके जानकार पुरुषके सिवाय किसी विरलेसे ही पूछा जा सकता है । 1 आपको सर्वोत्तम प्रज्ञाको नमस्कार करते हैं । कलिकालमे परमात्माको किन्ही भक्तिमान पुरुषोपर प्रसन्न होना हो, तो उनमेसे आप एक है । हमे आपका बड़ा आश्रय इस कालमे मिला और इससे जीवित है । २१६ ॐ 'सत्' यह जो कुछ देखते है, जो कुछ देखा जा सकता है, जो कुछ सुनते हैं, जो कुछ सुना जा सकता है, वह सब एक सत हो है । जो कुछ है वह सत् ही है, वह सत् एक ही प्रकारका हाने वही सत् जगतरूपसे अनेक प्रकारका हुआ है, परन्तु इससे वह कही स्वरूपसे च्युत नही हुआ है । स्वरूपमे ही वह एकाकी होनेपर भी अनेकाको हो सकने मे समर्थ है। एक सुवर्णं, कुडल, कडा, सांकला, बाजूबन्द आदि अनेक प्रकारसे हो, इससे उसका कुछ सुवर्णत्व घट नही जाता । पर्यायातर भागता है । और वह उसकी सत्ता है । इसी प्रकार यह समस्त विश्व उस 'सत्' का पर्यायातर है, परन्तु 'सत्' रूप ही है । अन्य नही । योग्य है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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