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________________ " २७२ श्रीमद राजचन्द्र है। वह समय समय पर अतुल खेद, ज्वरादि रोग, मरणादि भय और वियोग आदि दु.खोका अनुभव करता है, ऐसे अशरण जगतके लिये एक सत्पुरुष हो गरण है । सत्पुरुपकी वाणीके बिना इस ताप और तृपाको दूसरा कोई मिटा नही सकता, ऐसा निश्चय है । इसलिये वारंवार उस सत्पुरुपके चरणोका हम ध्यान करते हैं । ससार केवल असातामय है । किसी भी प्राणीको अल्प भी साता है, वह भी सत्पुरुषका ही अनुग्रह है । किसी भी प्रकार के पुण्यके विना साताकी प्राप्ति नही होती, और इस पुण्यको भी सत्पुरुषके उपदेशके बिना "किसीने नही जाना । बहुत काल पूर्व उपदिष्ट वह पुण्य रूढिके अधीन होकर प्रवर्तित रहा है, इसलिये मानो वह ग्रथादिसे प्राप्त हुआ लगता है, परन्तु उसका मूल एक सत्पुरुप ही है; इसलिये हम ऐसा ही जानते हैं कि एक अश मानासे लेकर पूर्णकामता तककी सर्व समाधिका कारण सत्पुरुप ही है। इतनी अधिक समर्थता होनेपर भी जिसे कुछ भी स्पृहा नही है, उन्मत्तता नही है, अहंता नही है, गर्व नहीं है, गौरव नहीं है, ऐसे आश्चर्यकी प्रतिमारूप सत्पुरुषको हम पुनः पुनः नामरूपसे स्मरण करते हैं । 1 त्रिलोकके नाथ जिसके वश हुए है, ऐसा होनेपर भी वह ऐसी अटपटी दशासे रहता है कि जिसकी सामान्य मनुष्य को पहचान होना दुर्लभ है, ऐसे सत्पुरुपको हम पुन पुनः स्तुति करते है । एक समय भी सर्वथा असगतासे रहना त्रिलोकको वग करनेकी अपेक्षा भी विकट कार्य है, ऐसी असगतासे जो त्रिकाल रहा है उस सत्पुरुपके अंत करणको देखकर हम परमाश्चर्य पाकर नमन करते है । हे परमात्मा | हम तो ऐसा ही मानते हैं कि इस कालमे भी जीवका मोक्ष हो सकता है । फिर भी जैन ग्रन्थोमे क्वचित् प्रतिपादन हुआ है, तदनुसार इस कालमे मोक्ष नही होता हो, तो इस क्षेत्रमे यह प्रतिपादन तू रख, और हमे मोक्ष देनेकी अपेक्षा ऐसा योग प्रदान कर कि हम सत्पुरुषके ही चरणोका ध्यान करें और उसके समीप ही रहे । 1 हे पुरुषपुराण | हम तेरेमे और सत्पुरुषमे कोई भेद ही नही समझते, तेरी अपेक्षा हमे तो सत्पुरुष हो विशेष लगता है कारण कि तू भी उसके अधीन ही रहा है और हम सत्पुरुपको पहचाने बिना तुझे पहचान नही सके, यही तेरी दुर्घटता हममे सत्पुरुपके प्रति प्रेम उत्पन्न करती है। क्योकि तू वगमे होनेपर भी वे उन्मत्त नही है, और तेरेसे भी सरल है, इसलिये अब तू जैसा कहे वैसा करें । हे नाथ | तू बुरा न मानना कि हम तेरी अपेक्षा भी सत्पुरुपकी विशेष स्तुति करते है, सारा जगत तेरी स्तुति करता है, तो फिर हम एक तुझसे विमुख बैठे रहेगे तो उससे कहाँ तुझे न्यूनता भी है और उनको (सत्पुरुपको ) कहाँ स्तुतिकी आकाक्षा है ? ज्ञानी पुरुष त्रिकालकी बात जानते हुए भी प्रगट नही करते ऐसा आपने पूछा; इस सम्वन्धमे ऐसा लगता है कि ईश्वरीय इच्छा ही ऐसी है कि अमुक पारमार्थिक बात के सिवाय ज्ञानी दुसरी त्रिकालिक वात प्रसिद्ध न करे, और ज्ञानीकी भी अतरग इच्छा ऐसी ही मालूम होती है । जिनकी किसी भी प्रकारकी आकाक्षा नही ह ऐसे ज्ञानीपुरुपके लिये कुछ कर्तव्यरूप न होनेसे जो कुछ उदयमे आता है उतना ही करते है । और हमे ऐसे ज्ञानका असगता ही प्रिय है । हम तो कुछ वैसा ज्ञान नही रखते कि जिससे त्रिकाल सर्वथा मालूम हो, कुछ विशेष ध्यान भी नही है । हमे तो वास्तविक जो स्वरूप उसकी भक्ति और यही विज्ञापन । 'वेदान्त ग्रथ प्रस्तावना' भेजी होगी, नही तो तुरन्त भेजियेगा । वि० आज्ञाकारी -
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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