SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६८ श्रीमद् राजचन्द्र २०४ ___ बबई, माघ वदी ७, मंगल, १९४७ यहाँ परमानद वृत्ति है । आपका भक्तिपूर्ण पत्र आज प्राप्त हुआ। आपको मेरे प्रति परमोल्लास आता है, और वारवार इस विषयमे आप प्रसन्नता प्रगट करते हैं, परन्तु अभी हमारी प्रसन्नता हमपर नही होती, क्योकि यथेष्ट असगदशासे रहा नहीं जाता, और मिथ्या प्रतिवधमे वास है। परमार्थके लिये परिपूर्ण इच्छा है, परन्तु ईश्वरेच्छाकी अभी तक उसमे सम्मति नही है, तब तक मेरे विषयमे अतरमे समझ रखियेगा, और चाहें जैसे मुमुक्षुओको भी नामपूर्वक मत वताइयेगा । अभी ऐसी दशामे रहना हमे प्रिय है। आपने खभात पत्र लिखकर मेरा माहात्म्य प्रगट किया, परन्तु अभी वैसा नही होना चाहिये। वे सब मुमुक्षु है । सच्चेको कितनी ही तरहसे पहचानते है, तो भी उनके सामने अभी प्रगट होकर प्रतिवध करना मुझे योग्य नही लगता | आप प्रसगोपात्त उन्हे ज्ञानकथा लिखियेगा, तो मेरा एक प्रतिवध कम होगा। और ऐसा करनेका परिणाम अच्छा है। हम तो आपका समागम चाहते हैं। कई बाते अतरमे घूमती है, परन्तु लिखी नही जा सकती। .. ___ बंबई, माघ वदी ११, शुक्र, १९४७ तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः उसे मोह क्या ? शोक क्या ? कि जो सर्वत्र एकत्व (परमात्मस्वरूप) को ही देखता है । वास्तविक सुख यदि जगतको दृष्टिमे आया होता तो ज्ञानी पुरुपो द्वारा नियत किया हुआ मोक्ष स्थान ऊर्ध्व लोकमे नही होता, परन्तु यह जगत ही मोक्ष होता। ज्ञानीको सर्वत्र मोक्ष है, यह बात यद्यपि यथार्थ है, तो भी जहाँ मायापूर्वक परमात्माका दर्शन है ऐसे जगतमे विचारकर पैर रखने जैसा उन्हे भी कुछ लगता है । इसलिये हम असगता चाहते है, या फिर आपका सग चाहते है, यह योग्य ही है। २०६. वबई, माघ वदी १३, रवि, १९४७ घट परिचयके लिये आपने कुछ नही लिखा सो लिखियेगा ।, तथा महात्मा कबीरजीकी दूसरी पुस्तकें मिल सकें तो भेजनेकी कृपा कीजियेगा। पारमार्थिक विपयमे अभी मौन रहनेका कारण परमात्माकी इच्छा है। जब तक असग नही होगे और उसके बाद उसकी इच्छा नही होगी तब तक प्रगटरूपसे मार्ग नही कहेगे, और ऐसा सभी महात्माओका रिवाज है । हम तो दीन मात्र है। ___ भागवतवाली बात आत्मज्ञानसे जानी हुई है। ववई, माघ वदी ३०, १९४७ यद्यपि किसी प्रकारको क्रियाका उत्थापन नही किया जाता तो भी उन्हे जो लगता है उसका कुछ कारण होना चाहिये, जिस कारणको दूर करना कल्याणरूप है। परिणाममे 'सत्' को प्राप्त करानेवाली और प्रारम्भमे 'सत्' की हेतुभूत ऐसी उनकी रुचिको प्रसन्नता देनेवाली वैराग्यकथाका प्रसगोपात्त उनसे परिचय करना, तो उनके समागमसे भी कल्याणकी ही वृद्धि होगी, और वह कारण भी दूर होगा। जिनमे पृथ्वी आदिका विस्तारसे विचार किया गया है ऐसे वचनोको अपेक्षा 'वैतालीय' अध्ययन जैसे वचन वैराग्यकी वृद्धि करते हैं, और दूसरे मतभेदवाले प्राणियोको भी उनमे अरुचि नही होती। २०७
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy