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________________ २४ वो वर्ष २६५ मात्र कोई दृढ जिज्ञासु हो उसका ध्यान मार्गकी ओर जाये ऐसी थोडे शब्दोमे धर्मकथा करें (और वह भी यदि वह इच्छा रखता हो तो), बाकी अभी तो आप सब अपनी-अपनी सफलताके लिये मिथ्या धर्मवासनाओका, विषयादिककी प्रियताका, और प्रतिबधका त्याग करना सीखें। जो कुछ प्रिय करने योग्य है, उसे जीवने जाना नही, और बाकीका कुछ प्रिय करने योग्य नही है, यह हमारा निश्चय है। आप जो यह बात पढे उसे सुज्ञ मगनलाल और छोटालालको किसी भी प्रकारसे सुना दीजिये, पढवा दीजिये। योग्यताके लिये ब्रह्मचर्य एक बडा साधन है । असत्सग एक बड़ा विघ्न है। १९९ बबई, माघ सुदी ११, गुरु, १९४७ उपाधियोगके कारण यदि शास्त्रवाचन न हो सकता हो तो अभी उसे रहने दें । परन्तु उपाधिसे नित्य प्रति थोडा भी अवकाश लेकर जिससे चित्तवृत्ति स्थिर हो ऐसो निवृत्तिमे बैठनेकी बहुत आवश्यकता है। और उपाधिमे भी निवृत्तिका ध्यान रखनेका स्मरण रखिये। ____ आयुका जितना समय है उतना ही समय यदि जीव उपाधिका रखे तो मनुष्यत्वका सफल होना कब सम्भव है ? मनुष्यताकी सफलताके लिये जोना ही कल्याणकारक है, ऐसा निश्चय करना चाहिये । और सफलताके लिये जिन जिन साधनोकी प्राप्ति करना योग्य है उन्हे प्राप्त करनेके लिये नित्य प्रति निवृत्ति प्राप्त करनी चाहिये । निवृत्तिके अभ्यासके बिना जीवको प्रवृत्ति दूर नहीं होती यह प्रत्यक्ष समझमे आने जैसी बात है। ___ धर्मके रूपमे मिथ्या वासनाओसे जीवको बधन हुआ है, यह महान लक्ष रखकर वैसी मिथ्या वासनाये कैसे दूर हो इसके लिये विचार करनेका अभ्यास रखियेगा। २०० बवई माघ, सुदी, १९४७ वचनावली १ जीव स्वयको भूल गया है, और इसलिये उसे सत्सुखका वियोग है, ऐसा सर्व धर्म सम्मत कथन है। २ स्वयको भूल जानेरूप अज्ञानका नाश ज्ञान मिलनेसे होता है, ऐसा नि शक मानना । । ३ ज्ञानको प्राप्ति ज्ञानीके पाससे होनी चाहिये। यह स्वाभाविकरूपसे समझमे आता है, फिर भी जीव लोकलज्जा आदि कारणोसे अज्ञानीका आश्रय नही छोडता, यही अनतानुबधी कपायका मूल है। ४ जो ज्ञानको प्राप्तिकी इच्छा करता है, उसे ज्ञानीको इच्छानुसार चलना चाहिये, ऐसा जिनागम आदि सभी शास्त्र कहते है । अपनी इच्छानुसार चलता हुआ जीव अनादिकालसे भटक रहा है। ५ जब तक प्रत्यक्ष ज्ञानीकी इच्छानुसार, अर्थात् आज्ञानुसार न चला जाये, तव तक अज्ञानकी निवृत्ति होना सभव नही है । ६ ज्ञानीकी आज्ञाका आराधन वह कर सकता है कि जो एकनिष्ठासे, तन, मन और धनको आसक्तिका त्याग करके उसको भक्तिमे जुट जाये। ७ यद्यपि ज्ञानी भक्तिको इच्छा नहीं करते, परन्तु मोक्षाभिलापीको वह किये विना उपदेश परिणमित नहीं होता, और मनन तथा निदिध्यासन आदिका हेतु नहीं होता, इसलिये मुमुक्षुको ज्ञानीको भक्ति अवश्य करनी चाहिये ऐसा सत्पुरुषोने कहा है। १ पाठातर-यद्यपि ज्ञानी भक्तिकी इच्छा नहीं करते, परन्तु मोक्षाभिलापीको वह किये बिना मोक्षको प्राप्ति नहीं होती, यह अनादि कालका गुप्त तत्त्व सतोके हृदयमें रहा है, जिसे यहां लिपिबद्ध किया है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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