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________________ २४ वॉ वर्ष १७४ सतकी शरण जा । सुज्ञ भाई श्री अंबालाल, आपका एक पत्र मिला । आपके पिताश्रीका धर्मेच्छुक पत्र मिला । प्रसगवश उन्हे योग्य उत्तर देना हो सकेगा । ऐसी इच्छा करूँगा | २५५ बबई, कार्तिक वदी ५, सोम, १९४७ सत्सग यह बड़े से बड़ा साधन है । सत्पुरुषकी श्रद्धा के बिना छुटकारा नही है । ये दो विषय शास्त्र इत्यादिसे उन्हे बताते रहियेगा । सत्सगकी वृद्धि कीजियेगा । १७५ वि० रायचन्दके यथायोग्य | बबई, कार्तिक वदी ८, गुरु, १९४७ सुज्ञ भाई अबालाल, यहाँ आनंदवृत्ति है | आप सब सत्सगकी वृद्धि करे । छोटालालका आज पत्र मिला । आप सबका जिज्ञासु भाव बढे यह निरन्तरकी इच्छा है । परम समाधि है । १७६ वि० रायचदके यथायोग्य | बबई, कार्तिक वदी ९, शुक्र, १९४७ जीवन्मुक्त सौभाग्यमूर्ति सौभाग्यभाई, मोरबी । मुनि दीपचंदजीके सम्बन्धमे आपका लिखना यथार्थ है । भवस्थितिकी परिपक्वता हुए बिना, की कृपा बिना, सतचरणकी सेवा किये बिना त्रिकालमे मार्ग मिलना दुर्लभ है । जीवके ससार परिभ्रमणके जो जो कारण हैं, उनमे मुख्य स्वय जिस ज्ञानके लिये शकित है, उस ज्ञानका उपदेश करना, प्रगटमे उस मार्गकी रक्षा करना, हृदयमे उसके लिये चलविचलता होते हुए भी अपने श्रद्धालुओको उसी मार्गके यथायोग्य होनेका ही उपदेश देना, यह सबसे बड़ा कारण है । आप उस मुनि सम्बन्ध मे विचार करेंगे तो ऐसा ही प्रतीत हो सकेगा । स्वयं शकामे गोते खाता हो, ऐसा जीव निशक मार्गका उपदेश देनेका दभ रखकर सारा जीवन बिता दे यह उसके लिये परम शोचनीय है। मुनिके सम्बन्धमे यहाँ पर कुछ कठोर भाषामे लिखा है ऐसा लगे तो भी वैसा हेतु है हो नही । जैसा है वैसा करुणार्द्र चित्तसे लिखा हे । इसी प्रकार दूसरे अनत जीव पूर्वकालमे भटके हैं, वर्तमानकालमे भटक रहे हैं और भविष्य कालमे भटकेंगे । जो छूटनेके लिये ही जीता है वह बधनमे नही आता, यह वाक्य नि शक अनुभवका है। वधनका त्याग करनेसे छूटा जाता है, ऐसा समझनेपर भी उसी बधनको वृद्धि करते रहना, उसमे अपना महत्व स्थापित करना और पूज्यताका प्रतिपादन करना, यह जीवको बहुत भटकानेवाला है । यह समझ समीप - मुक्तिगामी जीवको होती है, और ऐसे जीव समर्थ चक्रवर्ती जैसी पदवीपर आरूढ होते हुए भी उसका त्याग करके, करपात्रमे भिक्षा माँगकर जीनेवाले सन्तके चरणोको अनतानत प्रेमसे पूजते है, और वे अवश्यमेव छूट हैं। दीनबधुकी दृष्टि ही ऐसी है कि छूटनेके कामोको बाँधना नही, और बँधने के कामीको छोडना नही । यहाँ विकल्पशील जीवको ऐसा विकल्प हो सकता है कि जीवको बँधना पसन्द नही है, सभीको छुटनेकी
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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