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________________ २५४ श्रीमद् राजचन्द्र अधिक क्या लिखना ? आज, चाहे तो कल, चाहे तो लाख वर्षमे और चाहे तो उसके बादमे या उससे पहले, यही सूझनेपर, यही प्राप्त होनेपर छुटकारा है। सर्व प्रदेशोमे मुझे तो यही मान्य है। प्रसंगोपात्त पत्र लिखनेका ध्यान रखूगा। आप अपने प्रसगियोमे ज्ञानवार्ता करते रहियेगा, और उन्हे परिणाममे लाभ हो इस तरह मिलते रहियेगा। ___अबालालसे यह पत्र अधिक समझा जा सकेगा। आप उनकी विद्यमानतामे पत्रका अवलोकन कीजियेगा और उनके तथा त्रिभोवन आदिके उपयोगके लिये चाहिये तो पत्रको प्रतिलिपि करनेके लिये दीजियेगा। यही विज्ञापन। सर्वकाल यही कहनेके लिये जीनेके इच्छुक रायचन्दकी वंदना। १७३ बंबई, कार्तिक वदी ३, शनि, १९४७ जिज्ञासु भाई, आपका पहले एक पत्र मिला था, जिसका उत्तर अबालालके पत्रसे लिखा था। वह आपको मिला होगा । नही तो उनके पाससे वह पत्र मंगवाकर देख लीजियेगा। समय निकालकर किसी न किसी अपूर्व साधनका कारणभूत प्रश्न यथासम्भव करते रहियेगा। आप जो जो जिज्ञासु हैं, वे सब प्रतिदिन अमुक समय, अमुक घड़ी तक धर्मकथार्थ मिलते रहे तो परिणाममे वह लाभका कारण होगा। इच्छा होगी तो किसी समय नित्य नियमके लिये बताऊँगा। अभी नित्य नियममे साथ मिलकर एकाध अच्छे ग्रन्थका अवलोकन करते हो तो अच्छा। इस विषयमे कुछ पूछेगे तो अनुकूलताके अनुसार उत्तर दूंगा। अंबालालके पास लिखे हुए पत्रोकी पुस्तक है । उसमेसे कुछ भागका उल्लासयुक्त समयमे अवलोकन करनेमे मेरी ओरसे आपके लिये अब कोई इनकार नही है। इसलिये उनसे यथासमय पुस्तक मंगवाकर अवलोकन कीजियेगा। दृढ़ विश्वाससे मानिये कि इसे व्यवहारका बंधन उदय कालमे न होता तो आपको और दूसरे कई मनुष्योको अपूर्व हितकारी सिद्ध होता। प्रवृत्ति है तो उसके लिये कुछ असमता नही है; परन्तु निवृत्ति होती तो अन्य आत्माओको मार्गप्राप्तिका कारण होता.। अभी उसे विलंब होगा । पंचमकालकी भी प्रवृत्ति है। इस भवमे मोक्षगामी मनुष्योकी सभावना भी कम है। इत्यादि कारणोसे ऐसा ही हुआ होगा। तो इसके लिये कुछ खेद नही है। - आप सबको स्पष्ट बता देनेकी इच्छा हो आनेसे बताता हूँ कि अभी तक मैंने आपको मार्गके मर्मका (एक अंबालालके सिवाय) कोई अंश नहीं बताया है, और जिस मार्गको प्राप्त किये बिना किसी तरह किसी कालमे जीवका छुटकारा होना सम्भव नही है। यदि आपकी योग्यता होगी तो उस मार्गको देनेमे समर्थ कोई दूसरा पुरुष आपको ढूंढना नही पडेगा । इसमें किसी तरह मैंने अपनी स्तुति नही की है।' , इस आत्माको ऐसा लिखना योग्य नही लगता, फिर भी लिखा है। अंबालालका अभी पत्र नहीं है, उनसे लिखनेके लिये कहें। .. वि० रायचेन्दके यथायोग्य ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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