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________________ २०० श्रीमद् राजचन्द्र पुत्र सवधी दुख न समझे, कीर्ति सबंधी दु ख न समझे, भय सवधी दु ख न समझे, काया संवधी दुग्ख न समझो अथवा सवसे दु ख न समझे । मुझे दुख अन्य प्रकारका है । वह दुख वातका नही है, कफका नही है या पित्तका नही है, वह गरीरका नहीं है, वचनका नही है या मनका नही है। समझें तो सभीका है और न समझें तो एकका भी नहीं है। परतु मेरी विज्ञापना उसे न समझनेके लिये है, क्योकि इसमे कोई और मर्म निहित है। आप जरूर मानिये कि मै विना किसो पागलपनके यह कलम चला रहा हूँ। मै राजचद्र नामसे पहचाना जानेवाला. ववाणिया नामके छोटे गाँवका, लक्ष्मोमे साधारण परतु आर्य गिने जाते दशाश्रीमाली-वैश्यका पुत्र माना जाता हूँ | मैने इस देहमे मुख्य दो भव किये है, अमुख्यका हिसाव नही है । बचपनकी छोटी समझमे कौन जाने कहाँसे वडी-वडी कल्पनाएँ आया करती थी । सुखकी अभिलापा भी कम न थी और सुखमे भो महालय , वागवगीचे, और लाडीवाड़ीके कुछ सुख माने थे | बडी कल्पना इसकी थी कि यह सव क्या है। इस कल्पनाका एक बार ऐसा परिणाम देखा कि-पुनर्जन्म भी नहीं है, पाप भी नही है, पुण्य भो नहीं है, सुखसे रहना और संसार भोगना, यही कृतकृत्यता है। परिणामस्वरूप दूसरी झझटमे न पडते हुए धर्मकी वामनाएं निकाल डाली। किसी धर्मके लिये न्यूनाधिक भाव या श्रद्धाभाव नहीं रहा। कुछ समय बीतनेके बाद इसमेसे कुछ और ही हुआ। जिसके होनेको मेने कोई कल्पना नही की थी तथा उसके लिये मेरा ऐसा कोई प्रयत्न न था कि जो मेरे ख्यालमे हो, फिर भी अचानक परिवर्तन हो गया; कोई और अनुभव हुआ, और यह अनुभव ऐमा था कि जो प्राय न तो शास्त्रमे लिखा है और न जडवादियोकी कल्पनामे भी है। वह क्रमसे बढा, बढकर अव एक 'तू ही', 'तू ही' का जाप करता है। अब यहाँ समाधान हो जायेगा। भूतकालमे न भोगे हुए अथवा भविष्य कालके भय आदिके दु खोमेसे कोई दुख नही है । ऐसा अवश्य समझमे आयेगा । स्त्रीके सिवाय दूसरा कोई पदार्थ खास करके मुझे नहीं रोक सकता। दूसरा कोई भी ससारी साधन मेरी प्रीतिका विपय नही बना, और किसी भयने बहुलतासे मुझे आक्रात नही किया। स्त्रीके संवधमे मेरी अभिलापा कुछ और है तथा वर्तन कुछ और है। एक पक्षने उसका कुछ काल तक सेवन करना सम्मत किया है। तथापि उसमे सामान्य प्रीति-अप्रीति है । परतु दु ख यह है कि अभिलापा नही होने पर भी पूर्वकर्म क्यो घेरते है ? इतनेसे पूरा नही होता, परन्तु उसके कारण अरुचिकर पदार्थोंको देखना संघना और छूना पडता है, और इसी कारणसे प्रायः उपाधिमे रहना पडता है। महारभ, महा परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ या ऐसा तेसा जगतमे कुछ भी नही है, ऐसा विस्मरणध्यान करनेसे परमानद रहता है। उसे उपयुक्त कारणोसे देखना पडता है यह महाखेद है। अतरग चर्या भी कही प्रगट नही की जा सकती, ऐसे पात्र मेरे लिये दुर्लभ हो गये है, यही महा दुखकी बात है। वि स १९४५ यहां कुशलता है। आपकी कुशलता चाहता हूँ। आज आपका जिज्ञासु पत्र मिला। उस जिज्ञासु पत्रके उत्तरमे जो पत्र भेजना चाहिये वह पत्र यह है - . इस पत्रमे गृहाश्रमसवधी अपने कुछ विचार आपके सामने रखता हूँ। इन्हे रखनेका हेतु मात्र इतना ही है कि किसी भी प्रकारके उत्तम क्रममे आपके जीवनका झुकाव हो, और उस क्रमका जवसे आरभ होना चाहिये वह काल अभी आपके पास आया है, इसलिये उस क्रमको वतानेका उचित समय है, और बताये हुए क्रमके विचार अति सास्कारिक होनेसे पत्र द्वारा प्रगट हुए हैं। आपको और किसी भी आत्मोन्नति या प्रशस्त क्रमके इच्छुकको वे अवश्य अधिक उपयोगी सिद्ध होगे, ऐसी मेरी मान्यता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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