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________________ खेद ५०२ उम पुरुपकी आत्मदशा और उपकार ४१० | ५१८ त्याग, वैराग्य और उपशम प्रगट होनेपर ५०३ महाव्रतादिमे कभी अपवाद, ब्रह्मचर्यमें । आत्मस्वरूपका यथार्थरूपमे विचार हो सर्वथा अनपवाद, साघुके पत्र-समाचारादिमें । सकता है अपवाद, प्रमाद सब कर्माका हेतु ४११ | ५१९ सकुचित चित्तपरिणामके कारण पत्रादिका ५०४ सर्वज्ञको पहचानका फल दुषमकाल लेखन अशक्य ___असयतिपूजा नामसे आश्चर्ययुक्त ४१३ । ५२० चित्तकी अस्थिरता, समयसार (नाटक) में ५०५ वीतरागकथित परम शान्तरसमय धर्म पूर्ण बीजज्ञानका प्रकाश, बनारसीदासको अनुसत्य है, ऐसा निश्चय रखना ४१३ भवदशा, प्रभावनाहेतुके अवरोधक बलवान ५०६ आत्मपरिणामी ज्ञानीपुरुपको भी प्रारब्ध . कारणोसे खेदपूर्वक प्रारब्धवेदन व्यवसायमे जागृति रखना योग्य, दो ५२१ प्रत्यक्ष आश्रयमार्ग प्रकाशक सत्पुरुषकी प्रकारका बोध-सिद्धान्तबोध और उपदेश करुणास्वभावता वोध, वैराग्य, उपशम और विवेक, आरभ । ५२२ सत्पुरुषकी पहचानका परिणाम, सारे परिग्रह वैराग्य उपशमके काल लोककी अधिकरणक्रियाका हेतु ५०७ निवृत्तिकी इच्छा, आत्माकी शिथिलतासे ! ५२३ अज्ञानमार्ग प्राप्त करते देखकर करुणा, पदोको पढने आदिमे उपयोगका अभाव, ५०८ वारवार ससार भयरूप लगता है। ४१६ । सिद्धकी अवगाहना ५०९ ज्ञानसस्कारसे जीव और कायाकी भिन्नता ५२४ क्षमायाचना एकदम स्पष्ट, आत्माका अव्याबाधत्व और वेदनीय, सिद्ध और ससारी, जीवको । ५२५ बोधवीज, उदासीनता, मुक्तता, ज्ञानीसमानता, आत्मस्वरूपमें जगत नही है। पुरुषके लिये भी पुरुषार्थ प्रशस्त, निवृत्ति ४१६ । ५१० वन्धवृत्तियोके उपशमन और निवर्तनका 1. बुद्धिकी भावना कर्तव्य, सत्सगकी आवसतत अभ्यास कर्तव्य, पिता-पुत्रकी मान्यता श्यकता जीवकी मूढता । ५२६ अहवृत्तिका प्रतिकार, वचनाबुद्धि ५११ सिद्धपदका सर्वश्रेष्ठ उपाय-ज्ञानीकी ५२७ कौन अधिक उपकारी महावीरस्वामी या आज्ञाका आराधन, अज्ञानदशामें समय प्रत्यक्ष सद्गुरु ? व्यावहारिक जजालमें उत्तर देने अयोग्य ममयपर अनतकर्मवन्ध होते हुए भी मोक्षका अवकाश, काम जलानेका वलवान ५२८ ससारमें लौकिकभावसे आत्महित अशक्य, उपाय सत्सग ४१८ सत्सग भी निष्फल ५१२ सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोका अग्नि आदिसे ५२९ भगवान भगवानका संभालेगा व्याघात ५३० गाघोजीके आत्मा, ईश्वर, मोक्ष आदि ५१३ वेदान्त और जिनसिद्धात, सिद्धात-विचार सबधी २७ प्रश्न और उनके उत्तर योग्यता होनेपर, मुमुक्षुका मुख्य कर्तव्य ४२१ । ५३१ परमार्थ-प्रसगी आजीविका आदि विषयमे ५१४ आत्मासे असह्य व्यवसायको सहन करते हैं ४२२ लिखे तो परेशानी ५१५ आत्मवल अप्रमादी होनेके लिये कर्तव्य ४२२ । ५३२ साक्षीवत् देखना श्रेयरूप ५१६ व्यवसाय समाधिशीतल पुरुषके प्रति उष्णता २८ वां वर्ष हेतु, वर्धमानस्वामीका भी असग प्रवर्तन ४२२ | ५३३ दुषमकालमें सबके प्रति अनुकपा ५१७ अप्रतिबद्धता प्रधानमार्ग होते हुए भी ५३४ बीस दोहे, आठ त्रोटककी अनुप्रेक्षाका हेतु सत्सगर्ने प्रतिवद्ध बुद्धि ४२२ | ५३५ श्रीकृष्णकी दशा विचारणीय ४१८
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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