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________________ १५२ श्रीमद राजचन्द्र ५२४ शास्त्रकी आशातना नही करू। ५२५. उसी प्रकार गुरु आदिकी भी। ५२६ स्वार्थसे योग और तप नही साधू । ५२७ देशाटन करूं। ५२८. देशाटन नही करूं। ५२९ चातुर्मासमे स्थिरता करूँ । ५३० सभामे पान नही खाऊँ। ५३१ स्वस्त्रीके साथ मर्यादाके सिवाय नही फिरू । ५३२ भूलकी विस्मृति नही करना । ५३३ क० कलाल, सुनारकी दुकानपर नही बैलूं। ५३४. कारीगरके यहाँ (गुरुभावसे) नही जाना। ५३५. तम्बाकूका सेवन नही करना । ५३६ सुपारी दो बार खाना । ५३७ गोल कूपमे नहानेके लिये नही पडूं । ५३८ निराश्रितको आश्रय हूँ। ५३९ समयके विना व्यवहारकी बात नही करना । ५४० पुत्रका विवाह करूँ। ५४१ पुत्रीका विवाह करूं। ५४२. पुनर्विवाह नहीं करूं। ५४३ पुत्रीको पढाये बिना नही रहूँ। ५४४ स्त्री विद्याशाली ढूंढे, करूं। ५४५. उन्हे धर्मपाठ सिखलाऊँ। ५४६ प्रत्येक घरमे शातिविराम रखना। ५४७ उपदेशकका सन्मान करू । ५४८ अनंत गुणधर्मसे भरपूर सृष्टि है, ऐसा मानू। ' ५४९ किसी समय तत्त्व द्वारा दुनियामेसे दुःख चला जायेगा ऐसा मानूं । ५५०. दु ख और खेद भ्रम हैं । ५५१ मनुष्य चाहे सो कर सकता है। ५५२ शौर्य, बुद्धि इत्यादिका सुखद उपयोग करूँ। ५५३ किसी समय अपनेको दुखी नही मानूं। ५५४ सृष्टिके दु.खोका प्रणाशन करूं । ५५५ सर्व साध्य मनोरथ धारण करूँ। ५५६ प्रत्येक तत्त्वज्ञानीको परमेश्वर मानूं । ५५७ प्रत्येकका गुणतत्त्व ग्रहण करू। ५५८ प्रत्येकके गुणको प्रफुल्लित करूं। ५५९ कुटुवको स्वर्ग बनाऊँ। ५६० सृष्टिको स्वर्ग बनाऊँ तो कुटुवको मोक्ष बनाऊँ। ५६१ तत्त्वार्थसे सृष्टिको सुखी करते हुए मैं स्वार्थका त्याग करूँ।। ५६२ सृष्टिके प्रत्येक (-) गुणकी वृद्धि करूँ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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