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________________ १२२ श्रीमद राजचन्द्र जानना तो चाहिये परन्तु ग्रहण नही करना चाहिये । जैसे रास्तेपे आनेवाले गाँवोका त्याग किया वैसे उनका भी त्याग करना आवश्यक है। शिक्षापाठ ८४ : तत्त्वावबोध-भाग ३ जो सत्पुरुष गुरुगम्यतासे श्रवण, मनन और निदिध्यासनपूर्वक नवतत्त्वका ज्ञान कालभेदसे प्राप्त करते है, वे सत्पुरुष महापुण्यशाली तथा धन्यवादके पात्र है। प्रत्येक सुज्ञ पुरुषको मेरा विनयभावभूषित यही बोध है कि वे नव तत्त्वको स्ववुद्धिके अनुसार यथार्थ जाने। महावीर भगवानके शासनमे बहुत मतमतातर पड गये है, उसका एक मुख्य कारण यह भी है कि तत्त्वज्ञानकी ओर उपासक वर्गका ध्यान नही रहा । वह मात्र क्रियाभावमे अनुरक्त रहा, जिसका परिणाम दृष्टिगोचर है। वर्तमान खोजमे आई हुई पृथ्वीकी आबादी लगभग डेढ अरब मानी गयी है, उसमे सब गच्छोको मिलाकर जन प्रजा केवल बोस लाख है। यह प्रजा श्रमणोपासक है। मै मानता हूँ कि इसमेसे दो हजार पुरुष भी मुश्किलसे नवतत्त्वको पठनरूपसे जानते होगे । मनन और विचारपूर्वक जाननेवाले तो उँगलिकी नोक पर गिने जा सके उतने पुरुप भी नही होगे। जव तत्त्वज्ञानकी ऐसी पतित स्थिति हो गया है तभी मतमतातर बढ गये है। एक लौकिक कथन है कि 'सौ सयाने एक मत' । इस तरह अनेक तत्त्वविचारक पुरुपोके मतमे बहुधा भिन्नता नही आती। इस नवतत्त्वके विचारके सबधमे प्रत्येक मनिसे मेरी विज्ञप्ति है कि वे विवेक और गुरुगम्यतासे इसके ज्ञानकी विशेष वृद्धि करें। इससे उनके पवित्र पाँच महाव्रत दृढ होगे, जिनेश्वरके वचनामृतके अनुपम आनंदको प्रसादी मिलेगी, मुनित्वके आचारका पालन सरल हो जायेगा, ज्ञान और क्रिया विशुद्ध रहनेसे सम्यक्त्वका उदय होगा; परिणाममे भवात हो जायेगा। शिक्षापाठ ८५ : तत्त्वावबोध-भाग ४ जो जो श्रमणोपासक नव तत्त्वको पठनरूपसे भी नही जानते वे उसे अवश्य जानें । जाननेके बाद बहुत मनन करें। जितना समझमे आ सके, उतने गम्भीर आशयको गुरुगम्यतासे सद्भावसे समझें। इससे आत्मज्ञान उज्ज्वलताको प्राप्त होगा, और यमनियम आदिका पालन होगा। नवतत्त्व अर्थात् नवतत्त्व नामकी कोई रचित सामान्य पुस्तक नही, परतु जिस जिस स्थलमे जो जो विचार ज्ञानियोने प्रणीत किये हैं वे सब विचार नवतत्त्वमेसे किसी एक दो या अधिक तत्त्वके होते हैं। कवला भगवानने इन श्रेणियोसे सकल जगतमडल दिखा दिया है, इससे ज्यो ज्यो नय आदिके भेदसे यह तत्त्वज्ञान मिलेगा त्यो त्यो अपूर्व आनद और निर्मलताकी प्राप्ति होगी, मात्र विवेक, गुरुगम्यता और अप्रमाद चाहिये । यह नवतत्त्वज्ञान मुझे बहुत प्रिय है । इसके रसानुभवी भी मुझे सदैव प्रिय हैं। कालभेदसे इस समय भरतक्षेत्रमे मात्र मति और श्रत ये दो ज्ञान विद्यमान है, बाकोके तोन ज्ञान परपराम्नायसे देखनेमे नही आते, फिर भी ज्यो ज्यो पूर्ण श्रद्धाभावसे इस नवतत्त्वज्ञानके विचारोकी गुफामे उतरा जाता है, त्यो त्यो उसके अदर अद्भुत आत्मप्रकाश, आनद, समर्थ तत्त्वज्ञानको स्फुरणा, उत्तम विनोद और गंभीर चमक चकित करके वे विचार शुद्ध सम्यग्ज्ञानका बहुत उदय करते है। स्याद्वादवचनामृतके अनत सुन्दर आगयोको समझनेकी परम्परागत शक्तिका इस कालमे इस क्षेत्रसे विच्छेद हो गया है, फिर भी उम मवधी जो जो सुन्दर आशय समझमे आते है वे सब आशय अति अति गभीर तत्त्वसे भरे हुए हैं। उन आशयोका पुन पुनः मनन करनेसे चार्वाकमतिके चचल मनुष्य भी सद्धममे स्थिर हो
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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