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________________ १७ वॉ वर्ष १२१ आत्मा-अनात्माका सत्य स्वरूप निर्ग्रन्थ प्रवचनमेसे प्राप्त हो सकता है, अनेक मतोमे इन दो तत्त्वोंके विषयमे विचार प्रदर्शित किये है वे यथार्थं नही है । महाप्रज्ञावान आचार्यों द्वारा किये गये विवेचन सहित प्रकारातरसे कहे हुए मुख्य नव तत्त्वोको जो विवेकबुद्धिसे जानता है, वह सत्पुरुष आत्मस्वरूपको पहचान सकता है। द्वादशैली अनुपम और अनत भेदभावसे भरपूर है । इस शैलीको परिपूर्णरूपसे तो सर्वज्ञ और सर्वदर्शी ही जान सकते है, फिर भी उनके वचनामृतोके अनुसार आगमकी सहायतासे यथामति नव तत्त्वके स्वरूपको जानना आवश्यक है। इस नव तत्त्वको प्रिय श्रद्धाभावसे जाननेसे परम विवेकबुद्धि, शुद्ध सम्यक्त्व और प्रभावक आत्मज्ञानका उदय होता है । नंव तत्त्वमे लोकालाकका सपूर्ण स्वरूप आ जाता है । जिनकी जितनी बुद्धि की गति है वे उतनी तत्त्वज्ञानकी ओर दृष्टि पहुँचाते हैं, और भावानुसार उनके आत्माकी उज्ज्वलता होती है । इससे वे आत्मज्ञान के निर्मल रसका अनुभव करते हैं । जिनका तत्त्वज्ञान उत्तम और सूक्ष्म है, तथा जो सुशोलयुक्त तत्त्वज्ञानकी उपासना करते हैं वे पुरुष बड़भागी है । इन नव तत्त्वोके नाम मै पिछले शिक्षापाठमे कह गया हूँ, इनका विशेष स्वरूप प्रज्ञावान आचार्योंके महान ग्रन्थोंसे अवश्य जानना चाहिये, क्योकि सिद्धातमे जो जो कहा है उन सबको विशेष भेदसे समझने के लिये प्रज्ञावान आचार्यो द्वारा विरचित ग्रन्थ सहायभूत हैं । ये गुरुगम्यरूप भी है । नव तत्त्वके ज्ञानमे नय, निक्षेप और प्रमाणके भेद आवश्यक है, और उनका यथार्थं बोध उन प्रज्ञावानोने दिया है । शिक्षापाठ ८३ : तत्त्वावबोध - भाग २ सर्वज्ञ भगवानने लोकालोकके सपूर्ण भावोको जाना और देखा । उसका उपदेश भव्य लोगोको किया । भगवानने अनत ज्ञानसे लोकालोकके स्वरूपविषयक अनत भेद जाने थे, परतु सामान्य मनुष्योको उपदेशसे श्रेणी चढनेके लिये उन्होने मुख्य दीखते हुए नौ पदार्थ बताये । इससे लोकालोकके सर्वभावोका इसमे समावेश हो जाता है । निर्ग्रन्थ प्रवचनका जो जो सूक्ष्म बोध है वह तत्त्वकी दृष्टिसे नव तत्त्वमे समा जाता है, तथा सभी धर्ममतोका सूक्ष्म विचार इस नव तत्त्व विज्ञानके एक देशमे आ जाता है । आत्माकी जो अनत शक्तियाँ आवरित हो रही है उन्हे प्रकाशित करनेके लिये अर्हत भगवानका पवित्र बोध है । ये अनत शक्तियाँ तब प्रफुल्लित हो सकती है जब आत्मा नवतत्त्वविज्ञानमे पारगत ज्ञानी हो । सूक्ष्म द्वादशागीका ज्ञान भी इन नवतत्त्वके स्वरूपज्ञानमे सहायरूप है । यह भिन्न-भिन्न प्रकार से नवतत्त्वके स्वरूपज्ञानका वोध करता है, इसलिये यह नि शक मानने योग्य है कि जिसने नव तत्त्वको अनत भाव-भेदसे जाना, वह सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हुआ । इन नव तत्त्वोको त्रिपदीकी अपेक्षासे घटाना योग्य है। हेय, ज्ञेय और उपादेय अर्थात् त्याग करने योग्य, जानने योग्य और ग्रहण करने योग्य – ये तीन भेद नव-तत्त्वस्वरूपके विचारमे निहित हैं । प्रश्न - जो त्यागने योग्य है उसे जानकर क्या करना ? जिस गॉवको जाना नहो उसका मार्ग किसलिये पूछना ? उत्तर- आपकी इस शकाका समाधान सहजमे हो सकता है। त्यागने योग्यको भी जानना आवश्यक है । सर्वज्ञ भी सव प्रकारके प्रपचोको जान रहे हैं । त्यागने योग्य वस्तुको जाननेका मूलतत्त्व यह है कि यदि उसे न जाना हो तो अत्याज्य समझकर किसी समय उसका सेवन हो जाय । एक गाँवसे दूसरे गाँवमे पहुँचने तक रास्तेमे जो जो गॉव आनेवाले हो उनका रास्ता भी पूछना पडता है, नही तो जहाँ जाना है वहाँ नही पहुँचा जा सकता । जैसे वे गाँव पूछे परतु वहाँ वास नही किया, वैसे ही पापादि तत्त्वांको
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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