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________________ १७ वाँ वर्ष ११३ हुआ। उनके सत्यत्वकी परीक्षा लेनेके लिये कोई देव वहाँ वैद्यरूपमे आया । साधुसे कहा, "मैं बहुत कुशल राजवैद्य हैं, आपकी काया रोगका भोग बनी हुई है, यदि इच्छा हो तो तत्काल में उस रोगको दूर कर दूं।" साधु बोले, "हे वैद्य | कर्मरूपी रोग महोन्मत्त है, इस रोगको दूर करनेकी आपकी समर्थता हो तो भले मेरा यह रोग दूर करें। यह समर्थता न हो तो यह रोग भले रहे।" देवताने कहा, "इस रोगको दूर करनेको समर्थता तो मैं नही रखता।" साधुनें अपनी लब्धिके परिपूर्ण बलसे थूकवाली अगुलि करके उसे रोग पर लगाया कि तत्काल वह रोग नष्ट हो गया, और काया फिर जैसी थी वैसी हो गई। बादमे उस समय देवने अपना स्वरूप प्रकट किया, धन्यवाद देकर वदन करके वह अपने स्थानको चला गया। , रक्तपित्त जैसे सदैव खून-पीपसे खदबदाते हुए महारोगकी उत्पत्ति जिस कायामे है, पलभरमे विनष्ट हो जानेका जिसका स्वभाव है, जिसके प्रत्येक रोममे पौने दो दो रोगोका निवास है, ऐसे साढे तीन करोड रोमोसे भरी होनेसे वह रोगोका भडार है , ऐसा विवेकसे सिद्ध है। अन्न आदिकी न्यूनाधिकतासे वह प्रत्येक रोग जिस कायामे प्रगट होता है, मल, मूत्र, विष्ठा, हड्डी, मास, पीप और श्लेष्मसे जिसका ढाँचा टिका हुआ है, मात्र त्वचासे जिसकी मनोहरता है, उस कायाका मोह सचमुच विभ्रम ही है । सनत्कुमारने जिसका लेशमात्र मान किया, वह भी जिससे सहन नही हुआ, उस कायामे अहो पामर ! तू क्या मोह करता हैं ? यह मोह मगलदायक नहीं है। शिक्षापाठ ७२ : बत्तीस योग सत्पुरुष नीचेके बत्तीस योगोका सग्रह करके आत्माको उज्ज्वल करनेके लिये कहते हैं १ 'शिष्य अपने जैसा हो इसके लिये उसे श्रुतादिका ज्ञान देना। · २ 'अपने आचार्यत्वका जो ज्ञान हो उसका दूसरेको बोध देना और उसे प्रकाशित करना।२ ३ आपत्तिकालमे भी धर्मकी दृढताका त्याग नही करना। ४. लोक-परलोकके सुखके फलको इच्छाके बिना तप करना। ५ जो शिक्षा मिली है उसके अनुसार यत्नासे वर्तन करना, और नयी शिक्षाको विवेकसे • ग्रहण करना। ६. ममत्वका त्याग करना। ७ गुप्त तप करना। ८ निर्लोभता रखना। ९ परिषहउपसर्गको जीतना। १०. सरल चित्त रखना। ११ आत्मसयम शुद्ध पालना। १२ सम्यक्त्व शुद्ध रखना। १३, चित्तकी एकाग्र समाधि रखना। १४ कपटरहित आचार पालना। १५ विनय करने योग्य पुरुषोकी यथायोग्य विनय करनी । १६ सतोषसे तृष्णाकी मर्यादा कम कर डालना। १७ वैराग्यभावनामे निमग्न रहना। १८ मायारहित वर्तन करना। द्वि० आ० पाठा०-१. 'मोक्षसाधक योगके लिये शिष्य आचार्यके पास मालोचना करे।' २ 'आचार्य आलोचनाको दूसरेके पास प्रकाशित न करे ।'
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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