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________________ ११२ श्रीमद राजचन्द्र - इस प्रकार भगवानने नौ बा. विशुद्ध ब्रह्मचर्यके लिये कही हैं। बहुधा ये तुम्हारे सनने आती होगी। परन्तु गृहस्थावासमे अमुक अमुक दिन ब्रह्मचर्य धारण करनेमे अभ्यासियोके ध्यान रखना यहाँ कुछ समझाकर कही है। शिक्षापाठ ७० . सनत्कुमार-भाग १ चक्रवर्तक वैभवमे क्या कमी हो ? सनत्कुमार चक्रवर्ती थे। उनका वर्ण और रूप अत्यत्तम था। बार मधर्मसभामे उस रूपकी स्तुति हुई। किन्ही दो देवोको यह बात न रुची। फिर वे उस शकाको करने के लिये विपके रूपमे सनत्कुमारके अत पुरमे गये । सनत्कुमारकी देहमे उस समय उबटन लगा या था। उसके अगोपर मर्दनादिक पदार्थोंका मात्र विलेपन था.। एक छोटी अगीछी पहनी हुई थी और वै स्नानमज्जन करनेके लिये बैठे थे । विपके रूपमे आये हुए देवता उनका मनोहर मुख, कचनवर्णी काया और चन्द्र जैसी काति देखकर वहुत आनदित हुए और सिर हिलाया । इस पर चक्रवर्तीने पूछा, "आपने सिर क्यो हिलाया? ' देवोने कहा, "हम आपके रूप और वर्णका निरीक्षण करनेके लिये बहुत अभिलापो थे। हमने स्थान-स्थानपर आपके वर्ण-रूपकी स्तुति सुनी थी, आज उसे हमने प्रत्यक्ष देखा, इससे हमे पूर्ण आनद हुआ। सिर हिलानेका कारण यह है कि जैसा लोगोमे कहा जाता है वैसा ही आपका रूप है, उससे अधिक है, परन्तु कम नही ।" सनत्कुमार स्वरूपवर्णकी स्तुतिसे गर्वमे आकर वोले, "आपने इस समय मेरा रूप देखा सो ठीक है, परन्तु मै जव राजसभामे वस्त्रालकार धारण करके सर्वथा सज्ज होकर सिंहासनपर बैठता हूँ, तब मेरा रूप और मेरा वर्ण देखने योग्य है। अभी तो मै शरीरमे उबटन लगाकर बैठा हूँ। यदि उस समय आप मेरे रूप-वर्णको देखेगे तो अद्भुत चमत्कारको प्राप्त होगे और चकित हो जायेंगे।" देवोने कहा, "तो फिर हम राजसभामे आयेंगे" ऐसा कहकर वे वहाँसे चले गये। तत्पश्चात् सनत्कुमारने उत्तम वस्त्रालकार धारण किये । अनेक प्रसाधनोंसे अपने शरीरको विशेष आश्चर्यकारी ढगसे सजाकर वे राजसभामे आकर सिंहासनपर बैठे। आसपास समर्थ मंत्री, सुभट, विद्वान और अन्य सभासद अपने-अपने योग्य आसनोपर बैठे हुए थे । राजेश्वर चमरछत्रसे और खमा खमाके उद्गारोंसे विशेप शोभित तथा सत्कारित हो रहे थे। वहाँ वे देवता फिर विपके रूपमे आये। अद्भुत रूप-वर्णसे आनदित होनेके बदले मानो खिन्न हुए हो ऐसे ढगसे उन्होने सिर हिलाया। चक्रवर्तीने पूछा, "अहो ब्राह्मणो । गत समयकी अपेक्षा इस समय आपने और ही तरहसे सिर हिलाया है, इसका क्या कारण है सो मुझे बतायें।" अवधिज्ञानके अनुसार विप्रोने कहा, "हे महाराजन् | उस रूप और इस रूपमे भूमि-आकाशका फर्क पड गया है ।" चक्रवर्तीने उसे स्पष्ट समझानेके लिये कहा । ब्राह्मणोने कहा, “अधिराज | पहले आपकी कोमल काया अमृततुल्य थी, इस समय विपतुल्य है। जब अमृततुल्य अग था तब हमे आनद हुआ था और इस समय विपतुल्य है अत. हमे खेद हुआ है। हम जो कहते है उस बातको सिद्ध करना हो तो आप ताम्बूल थूकें । तत्काल उसपर मक्खी वैठेगी और परलोक पहुँच जायेगी।" शिक्षापाठ ७१ : सनंतकुमार-भाग २ सनत्कुमारने यह परीक्षा को तो सत्य सिद्ध हुई । पूर्व कर्मके पापके भागमे इस कायाके मदका मिश्रण होनेसे इस चक्रवर्तीको काया विषमय हो गई थी। विनाशी और अशुचिमय कायाका ऐसा प्रपच देखकर सनत्कुमारके अत करणमे वैराग्य उत्पन्न हुआ। यह ससार सर्वथा त्याग करने योग्य है । ऐसीकी ऐसी अशुचि स्त्री, पुत्र, मित्र आदिके शरीरमे रही है । यह सब मोह-मान करने योग्य नहीं है, यो कहकर वे छ खडकी प्रभुताका त्याग करके चल निकले। वे जब साधुरूपमे विचरते थे तव महारोग उत्पन्न
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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