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________________ १७ वा वर्ष कि न हैं वे वस्त्रालकार, न है वह पंखा कि न है वह पवन, न है वे अनुचर कि न है वह आज्ञा, न है वह सुख-विलास कि न है वह मदोन्मत्तता | महाशय तो स्वय जैसे थे वैसेके वैसे दिखायी दिये । इससे उस देखावको देखकर वह खेदको प्राप्त हुआ। स्वप्नमे मैने मिथ्या आडबर देखा, उससे आनद माना, उसमेसे तो यहाँ कुछ भी नही है। मैंने स्वप्नके भोग तो भोगे नही, और उसका परिणाम जो खेद है उसे मैं भोग रहा हूँ, इस प्रकार वह पामर जीव पश्चात्तापमे पड़ गया। अहो भव्यो । भिखारीके स्वप्नकी भॉति ससारके सुख अनित्य है। जिस प्रकार स्वप्नमे उस भिखारीने सुखसमुदायको देखा और आनद माना, उसी प्रकार पामर प्राणी ससारस्वप्नके सुखसमुदायमे आनद मानते हैं । जैसे वह सुखसमुदाय जागृतिमे मिथ्या मालूम हुआ वैसे ही ज्ञान प्राप्त होने पर ससारके सुख वैसे मालूम होते है। स्वप्नके भोग न भोगनेपर भी जैसे भिखारीको खेदकी प्राप्ति हुई, वैसे ही मोहाध प्राणी ससारमे सुख मान बैठते हैं, और उन्हे भोगे हुओके समान मानते है, परतु परिणाममे खेद, दुर्गति और पश्चात्ताप पाते है। वे चपल और विनाशी होनेपर भी उनका परिणाम स्वप्नके खेद जैसा रहा है । इसलिये बुद्धिमान पुरुष आत्महितको खोजते है । ससारको अनित्यतापर एक काव्य है कि (उपजाति ) विद्युत लक्ष्मी प्रभुता पतंग, आयुष्य ते तो जळना तरंग; पुरदरी चाप अनंगरंग, श राचिये त्या क्षणनो प्रसग ? विशेषार्थ-लक्ष्मी बिजली जैसी है। जैसे बिजलीकी चमक उत्पन्न होकर नष्ट हो जाती है, वैसे लक्ष्मी आकर चली जाती है। अधिकार पतगके रग जैसा है। पतगका रग जैसे चार दिनको चाँदनी है, वैसे अधिकार मात्र थोडा समय रहकर हाथमेसे चला जाता है। आयु पानीकी लहर जैसी है। जैसे पानीकी हिलोर आयी कि गयी वैसे जन्म पाया, और एक देहमे रहा या न रहा कि इतनेमे दूसरी देहमे जाना पड़ता है । कामभोग आकाशमे उत्पन्न होनेवाले इन्द्रधनुष जैसे है। जैसे इद्रधनुष वर्षाकालमे उत्पन्न होकर क्षणभरमे विलीन हो जाता है, वैसे यौवनमे कामके विकार फलीभूत होकर जरावयमे चले जाते है। सक्षेपमे हे जीव । इन सारी वस्तुओका सवध क्षणभरका है। इसमे प्रेमबधनकी साँकलसे बँधकर क्या प्रसन्न होना ? तात्पर्य यह कि ये सब चपल और विनाशी है, तू अखड और अविनाशी है, इसलिये अपने जैसी नित्य वस्तुको प्राप्त कर | यह बोध यथार्थ है। शिक्षापाठ ४३ : अनुपम क्षमा क्षमा अतर्शत्रुको जीतनेका खड्ग है। पवित्र आचारको रक्षा करनेका बख्तर है। शुद्धभावसे असह्य दुःखमे समपरिणामसे क्षमा रखनेवाला मनुष्य भवसागरको तर जाता है। कृष्ण वासुदेवके गजसुकुमार नामके छोटे भाई महा सुरूपवान एव सुकुमार मात्र बारह वर्षको आयुमे भगवान नेमिनाथके पास ससारत्यागी होकर स्मशानमे उग्र ध्यानमे स्थित थे, तब वे एक अद्भुत क्षमामय चरित्रसे महा सिद्धिको पा गये, उसे मैं यहां कहता हूँ। सोमल नामके ब्राह्मणकी सुरूपवर्णसपन्न पुत्रीके साथ गजसुकुमारकी सगाई हुई थी। परतु विवाह होनेसे पहले गजसुकुमार तो ससार त्यागकर चले गये। इसलिये अपनी पुत्रीके सुखनाशके द्वेषसे उस सोमल ब्राह्मणको भयकर क्रोध व्याप्त हो गया। गजसुकुमारकी खोज करता करता वह उस स्मशानमे आ पहुंचा जहाँ महा मुनि गजसुकुमार एकाग्र विशुद्ध भावसे कायोत्सर्गमे थे । उसने कोमल गजसुकुमारके माथेपर चिकनी मिट्टीकी बाड बनाई और उसके अदर धधकते हुए अगारे भरे और इंधन भरा जिससे महा ताप उत्पन्न हुआ। इससे गजसुकुमारकी कोमल देह जलने लगी, तब सोमल वहांसे
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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